न जाने क्यों हर किसी का,
मन एक मोड़ पर आकर,
जरूर यह चाहता है,
कि कोई आकर कहे ,
मैं तुम्हें जानता हूं ,पहचानता हूं,
तुम्हारी हर बात हर,
काम को मानता हूं ,
भले ही वह एक शब्द,
कहकर चला जाए ,
भले ही कोई एक पेन किताब,
फूल देकर चला जाए,
बस बार-बार यही ,
कहकर चला जाए,
मैं तुम्हें जानता हूं, पहचानता हूं ,
इसी खोज में हर कोई,
भटक रहा है यहां वहां,
जहां-तहां न जाने कहां-कहां,
चिपक छिपक रहा है,
कब सुबह होती है ,
कब शाम होती है ,
वह जान ही नहीं पाता ,
बस खोजने में लगा है,
कि भला वह इस दुनिया में ,
क्यों क्या करने आता,
जो किया है उसे कोई,
जान नहीं पा रहा है,
इस बात की एक वेदना ,
वह हर पल अपने भीतर पा रहा है,
हर कोई बताना चाहता है,
दुनिया क्या है, समाज क्या है,
समाज के उस पार क्या है,
दुनिया के उस पार क्या है,
इसी की बिसात बिछाकर,
हर कोई बैठ रहा है,
कोई अपने को आचार्य,
कोई अपने को ज्ञानी,
कोई अपने को कथा वाचक,
कोई अपने को राजनीतिकार,
कोई अपने को शिक्षक कह रहा है,
पर चाहिता यही है,
कोई आकर कहे ,
मैं तुम्हें जानता हूं, पहचानता हूं,
और तुम्हारी हर बात को मानता हूं,
बस इतनी सी बात पर,
एक जीवन सार्थक हो जाने की,
बात हो रही है,
और इसी खोज में अंतहीन,
श्रृंखला में हर एक सांस खो रही है,
जबकि यह सच भी,
हर कोई जानता है,
मानता है, पहचानता है ,
कि जाने के बाद भला कौन,
किसको याद रखता है,
किसी की किसी बात को,
बार-बार हर मोड़ हर चौराहे,
हर रंग मंच पर रखता है,
कभी-कभी अगर याद आ जाए,
किसी को तो भले ही कहा जाता है,
वरना कौन किसके लिए,
यहां पूरा-पूरा जी पाता है,
फिर भी न जाने क्यों,
यही बात बार-बार कहता है,
कोई होता जो आकर कहे,
मैं तुम्हें जानता हूं ,पहचानता हूं ,
और तुम्हारी हर बात को मानता हूं,
जीवन की यही ललक,
जीवन का अर्थ रोज,
सबको बताती है,
पूरब की लाली, चांद की चांदनी,
बार-बार आलोक आती है,
और जीवन की एक कहानी,
पूरी पूरी खत्म हो जाती हैl
आलोक चांटिया
Friday, December 20, 2024
हर जीवन यही चाहता है -आलोक चांटिया
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