Monday, December 9, 2024

मां को हम कहां समझ पाते हैं आलोक चांटिया


 सांसों को बटोरना समेटना,

 आसान नहीं होता है,

 पल भर में गलती हुई नहीं कि,

 कोई भी इसे खोता है ,

लगता जरूर है हर किसी को,

 जीवन पाना है आसान,

 यह सारी धरती मेरी है,

 और ऊपर है मेरा आसमान,

 पर सांसों को बुनने का काम,

 एक लंबे रास्ते से होकर आता है,

 इस दुनिया में लाने के लिए,

 जीवन पाने वाला कहां,

 यह जान पाता है कि,

 कितना जुगत किया गया है ,

उसको बचाने के लिए,

  दुनिया को उसे दिखाने के लिए, 

पहले कहीं जगह ढूंढी जाती है,

 कोई खतरा तो नहीं ,

इसकी बात की जाती है,

 फिर छोटे-छोटे अंडों से,

 निकलती है जीवन की आहट,

 और हर दिन चलता है,

 एक अंतहीन प्रयास और ,

बढ़ाने की छटपटाहट,

 यूं ही नहीं मिल जाता जीवन में,

 उड़ने का किसी को भी कोई अर्थ,

 जरा सी गलती हुई नहीं कि,

 जीवन चल देता है लेकर अनर्थ, 

इसीलिए एक ही रिश्ते को,

 दर्द हमेशा बना रहता है,

 भूख प्यास नींद से दूर उसका,

 जीवन बस हर पल यही कहता है, 

कैसे बचा लूं अपने बच्चों को,

  दुनिया में दुनिया दिखाने के लिए,

 मां ही दिन-रात एक कर देती है, 

बच्चों में जीवन का अर्थ पाने के लिए, 

और सारे रिश्ते झूठ भी पड़ जाते हैं,

 किसी को ना दर्द की चिंता,

 ना भूख की चिंता ना,

 जिंदा रखने की चिंता पर,

 मां ही  होती है रिश्तो के अर्थ में,

 जिसे हम हर मोड़ पर,

 अपने लिए खड़ा पाते हैं,

आलोक चांटिया

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