Saturday, December 28, 2024

आंख का कसूर -आलोक चांटिया

 

आंख


यह आंखें न होती तो,

 दुनिया जान ही न पाती ,

कि यह ठंडी हवाएं,

 कहां से हैं आती ,

यह आंखें न होती ,

तो जान न पाती ,

कि प्रकृति की खूबसूरती,

 कौन कैसे हैं पाती ,

आंखों का क्या है थक कर,

अक्सर सो भी जाती है ,

वहां भी सपने जीवन के,

कई अनोखे पाती हैं ,

चौक कर खोल देती हैं जब,

 पूर्व की तरफ से ,

कोई रोशनी पाती है,

 जानती है दरवाजे पर,

 एक दस्तक हो रही है ,

जब किसी को गलती से ही ,

सही अपना होता पाती हैं ,

कभी-कभी आंखों को लोग ,

गलत समझ जाते हैं ,

जब अपने इश्क के लिए,

 सूरदास बन जाती है ,

आंखें खुद अपने रास्तों पर,

 दौड़ती चली जाती हैं,

 कोई उन्हें अच्छा, कोई खराब,

 कोई चिपकने वाला, कोई घूरने वाला,

 कहता हुआ पाती है ,

पर आंखों का क्या है ,

जो देखते हैं उसी से ,

अंदर राम कृष्ण रावण की न जाने,

 कितनी तस्वीर बना लेती हैं,

 और समाज को सत्य, त्याग ,

समर्पण की मंदोदरी, सीता,

 रुक्मणी, राधा दे देती हैं l

 आलोक चांटिया

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