Monday, December 16, 2024

थक जाता है मन - आलोक चांटिया


 थक जाता है मन ,

जब तन थक जाता है ,

थक जाता है तन जब मुट्ठी में,

 अंधेरा रह जाता है ,

कई बार थक जाता है तन,

 जब लाख चाहने के बाद भी,

 बाजार को कोई व्यक्ति अपने,

 घर तक नहीं ला पाता है,

 बिना बाजार को लाये अब,

 गांव शहर कहीं पर भी ,

रसोई कहां चाहती है ,

खाने की थाली कहां महकती है,

 डर जाता है मन थके हुए,

 पांव के साथ घर लौटना ,

क्योंकि कोई नहीं मान पाता,

कोई यूं ही नहीं अपनी,

 जिंदगी से हार जाता,

 पक्षी ने पूरी जान लगाकर, 

आसमान के रास्ते तय किए थे, 

ढूंढा था कहीं कोई टुकडा मिल जाता, 

और वह भी अपने,

 जीवन को संवार पाता,

 पर कहां कोई मानता है कि,

 किया होगा उसने अपना पूरा जतन,

 क्योंकि अक्सर लोग सुनाते हैं उलहना,

 तुम्हें ही क्यों नहीं मिला,

 ढूंढने से तो मिल जाते हैं भगवान, 

तुम हो पूरे निखट्टू और वेदम,

 वह तो भला हो भाग्य का,

 जिसके सहारे आज भी,

 वह जी रहा है 

मुट्ठी खाली रहे,जीवन खाली रहे,

 पर वह जानता है कल ,

जिंदगी के रास्ते जरूर बदलेंगे,

 अपने हाथ की फटी हुई,

 लकीरों को  बड़े जतन से, 

सी रहा है सच है कि थक गया है,

 उसका मन नहीं थका है,

 मिट्टी के शरीर से उत्साह के,

 बीज का वह प्रयास ,

जो कभी तो फूटेगा ,

ऐसा रोज लगाता है वह कयासl

आलोक चांटिया

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