चलो भगवान को ढूंढने निकलते हैं,
यह कहकर ना जाने कितने,
हर रोज अपने घरों से चलते हैं,
पर पहुंच कहां पाए हैं वहां तक,
जहां भगवान रहता है ,
हर कोई हर नुक्कड़ पर इनसे,
बस कहता रहता है,
मैं तुम्हें बताऊंगा वह रास्ता,
मैं तुम्हें दिखाऊंगा वह रास्ता,
जिससे होकर तुम जा सकते हो,
जिसे तुम ढूंढने निकले हो,
उसे तुम यही पा सकते हो,
कई बार फूल के पराग की,
लालच की तरह न जाने कितने,
भंवरे तितली की तरह उलझ कर,
रास्ते में ही रह जाते हैं ,
रोटी की तलाश में भगवान की,
कहानी कहने वाले दूध घी,
मक्खन से नहलाये जाते हैं ,
थक हार कर बंद मुट्ठी में,
अंधेरा लपेटकर वह लौट आता है ,
जो अक्सर भगवान की तलाश में,
अपने घर से बाहर जाता है,
मृग की तरह ढूंढता रहता कस्तूरी,
वह पूरी दुनिया में यहां वहां ,
जहां- तहां मत पूछो कहां-कहां,
भला कब अपने भीतर और,
अपने चारों तरफ झांक पाता है,
माता-पिता को हाड़ मांस का,
समझ कर वह दुनिया में ,
भगवान को पाकर भी ,
भगवान की तलाश में ,
हर बार निकल जाता है,
कई बार आदमी अपने घरों से,
भगवान को ढूंढने निकलता है,
पर सोच कर देखिए कितनों को,
वह कब कहीं बाहर मिलता है,
यह सच है कि कई बाबा संत,
मौलवी मसीहा अमीर हो जाते हैं,
जिनके चक्कर में में हम ,
अंधेरों में खोकर भगवान को ,
ढूंढते रह जाते हैं ,
चलो एक बार फिर भगवान को,
ढूंढने निकलते हैं ,
एक बार चार दिवारी के भीतर,
अपने मां-बाप से फिर से मिलते हैंl
आलोक चांटिया
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