सिंदूर लगाने का दर्द
सिर्फ जमीन पर एक लकीर जब भी
जहां भी खींच दी जाती है
देखते-देखते ही वह टुकड़ा जमीन से
निकल कर देश बना दी जाती है
फिर क्यों नहीं समझते हम सूनी
मांग में खींची हुई इन लकीरों को
जिन लकीरों से निकालकर
रिश्तो की कई रेखाएं खींच जाती हैं
सिंदूर की इस लकीरों में हर दिन
सुबह शाम लोग पढ़ते हैं
सीमा के उस पार खड़ी लड़की की कहानी
जो कभी इस घर की थी
कभी उस घर की थी
जिसको बचपन से यही समझा
समझा कर दिखाया गया उसकी जवानी
कि बाप के घर पर ज्यादा
अपना हिस्सा मत दिखाओ
जिसके मांग का सिंदूर लगाओगी
तब उसके घर जाना और वहां पर
सारे सुख आराम पाओ
वह भी इसी कल्पना में उड़ती इतराती
बलखाती इंतजार करती रह जाती है
एक सिंदूर का अपने जीवन में
शहनाई दावत विदाई के साथ एक दिन
अपनी मांग के सिंदूर में
एक जिंदा आदमी ले आती है जीवन में
पर वह आदमी भी तो मांग के
सिंदूर से ही रिश्तो को
तय करता हुआ मिल जाता है
भला वह कब अपनी ससुराल को
अपना घर मान पाता है
और शायद वह सोचता भी सही है
क्योंकि खींची गई सीमाओं पर
लाली इतने खून की तरह फैल गई है
कि अपनी ही घर की बेटी
अपने ही घर में पराई हो गई है
सिंदूर की सीमा के पार ससुराल में
रहती हुई लड़की जब ससुराल को भी
अपना घर मानकर जीने को
विवश हो जाती है
तो वहां भी कुछ आवाज़
वह अपने चारों ओर गूंजती हुई पाती है
क्या तुम्हें तुम्हारी मां ने
कुछ नहीं सिखाया
तुम्हें किसी काम को करने का
सऊर भी क्यों ना आया
यह तुम्हारी ससुराल है यहां पर
ठीक से तुम्हें रहना होगा
समझ में आए तो रहो वरना अपने
पीहर को ही तुम्हें अपना घर कहना होगा
द्रोपती की तरह खड़ी एक औरत
अपने चीर हरण को चुपचाप देखकर भी
करें तो क्या करें
सिंदूर के दोनों तरफ खड़े रिश्तो को भी
कैसे वह पार करें
कभी-कभी तो सिंदूर में ढूंढ लेती है
अपनी जिंदगी का वह दौर
जब ना पीहर में ना ससुराल में
वह पाती है कोई ठौर
इसीलिए अब सिंदूर को लगाना
दुनिया में बंद सा हो गया है
पर जीने की चाहत में लड़की का जीवन
आलोक अकेला सा रह गया है
वह मिट्टी की तरह चाहती है
सबको प्यार, लगाव ममता लुटा देना
इसके अलावा भला उसे
किसी से और क्या लेना देना
इसके अलावा भला उसे
किसी और से क्या लेना देना ।
आलोक चांटिया
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