Saturday, December 31, 2022

नया साल मुबारक हो

 शुभकामना शुभकामना 

नए साल का ,

सब करें सामना |

दुःख में दिखे कोई ,

दर्द को कहे कोई ,

हाथ उसी का ,

तुम थामना ,

शुभकामना शुभकामना .

सन्नाटे से पथ हो , 

रात हो अँधेरी ,

चीख सुनी कोई ,

तो उसे जानना ,

शुभकामना शुभकामना 

खुशियों के पल हो ,

खुशियों के कल हो ,

जीवन ही ऐसा ,

तुम फिर बांटना,

शुभ कामना शुभकामना 

नए साल का ,

सब करें सामना ....................

अखिल भारतीय  अधिकार संगठन आप सभी को आने वाले चक्रीय समय के प्रतीक नव वर्ष के लिए शुभकामना प्रेषित करता है |.......आपका आलोक चान्टिया

Friday, December 30, 2022

बूंद की सीख

 जब भी एक बूंद निकलती है, 

भला वह क्या जाने जमीन पर, 

जाकर वह किस से मिलती है? 

फिर भी कर्म के पथ पर चलकर, 

वह नदी, पोखर, तालाब, कीचड़,

 नाली, पपीहा, सीपी जिसके भी, 

जीवन संग सिमटती है ,

उसी को अपना भाग्य मानकर, 

मनोयोग से उसके संग ,

हर पल ही लिपटती है ,

नहीं सोचती कीचड़ संग वह,

 क्या पाएगी पपीहा की चोच में,

 फस कर क्या किसी को ,

याद आएगी ,

नहीं विरह में दूर है जाती ,

अपना कर्म है करती जाती ,

सीपी को भी मोती बनाकर,

 हम सब से बस यह कहती जाती,

 मत सोचो क्यों आए हो ,

कैसे आए हो 

मिला है जीवन मानव का जब, 

कर्म के पथ पर बस,

 चलते ही जाओ ,

जिसके कारण जो अर्थ लिए हो, 

उसको हर पल जीते जाओ ,

यही अर्थ है तेरे जीवन का ,

यही अर्थ है मेरे जीवन का ,

भाग्य, प्रारब्ध की

 बात को छोड़ो बस 

कर्म के पथ पर चलते जाओ।

 चलते जाओ चलते जाओ।

 एक बूंद कब है यह ,

जान भी पाती ?

आखिर जमीन पर वह ,

किसके खातिर आती ?

आलोक चांटिया

Wednesday, December 28, 2022

पौधे सा जीवन

 पौधे से न जाने कब ,

जिंदगी दरख्त बन गयी ,

किसी के लिए यह ,

ओस की  बूंद सी रही ,

तो किसी के लिए ,

मदहोश सी मिलती  रही 

कोई आकर घोसला ,

अपना बना गया ,

कोई मिल कर ,

होसला ही बढ़ा गया ,

किसी को हंसी मिली ,

किसी की  सांस खिली ,

कोई जिया ही देखकर ,

कोई आया दिल भेद कर ,

सभी में अपने लिए ,

 तोड़ने , मोड़ने , छूने ,

छाया पाने की ललक दिखी ,

किसी ने फूल समझा ,

तो किसी ने कलम बना ,

अपनी ही कहानी लिखी ,

सभी को आलोक मिला ,

पर उसे रहा यही गिला ,

अँधेरे से सब डरते रहे ,

मौत से ही मरते रहे ,

कोई नहीं दिखा आलोक में ,

जोड़ी बनती है परलोक में ,

आलोक पूरा हुआ अँधेरे से ,

रात पूरी होगी सबेरे से ,

आइये चलते रहे दरख्त ,

बनने की इस कहानी में ,

फूल पत्ती शाखो से ,

महकते रहे जवानी में ......................अखिल भारतीय अधिकार संगठन आप सभी को जिंदगी के मायने समझते हुए एक नए कल की शुभ कामनाये प्रेषित करता है ............

Monday, December 26, 2022

बदल गए उम्र की तरह

 मैं जिसको उस मोड़ पर , 

मानो ना मानो ,

छोड़ आया हूँ ,

और कुछ भी नहीं बस ,

वो मेरा कल जिसे ,

उम्र बना लाया हूँ |

लोग कहते है अब मुझे ,

कुछ बदल से गए हो ,

आलोक इस तरह ,

क्या कहूं उनसे भी ,

कुछ भी नहीं बदला ,

सिवा इस उम्र की तरह .......... 


Alok Chantia

अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Saturday, December 24, 2022

नास्तिक हो तुम

 जब तुम अपने को

बिल्कुल अकेला कहते हो

सच मानो दुनिया में भगवान

नहीं है यह भी कहते हो 

फिर क्यों जाते हो मंदिर मस्जिद 

गिरजाघर गुरुद्वारा जब तुमको 

खुद पर अपने चारों ओर 

उसके होने का विश्वास ही नहीं है 

वही चला रहा है इस चराचर 

ब्रह्मांड को पर तुम मानते हो 

वह कहीं नहीं है 

तुम हर बार हर दिन हर पल 

अपने को अकेला कहकर 

यही बताते हो भगवान मानने का 

तुम नाटक करते रहे हो 

यही जताते हो वरना 

कण-कण में भगवान है का 

दर्शन लिए तुम  मान जाते 

रोशनी हवा और तुम्हारे 

बंद कमरों के सन्नाटे में 

वह तुम्हारे साथ ही रह रहा है 

यह भी जान जाते 

अब जब भी किसी को अपने को

 अकेला कहते हुए पाना 

तो  मान लेना मंदिर जाकर भी 

वह नास्तिक है उसने यह माना

Thursday, December 22, 2022

सूरज से सीखो

 सूरज यह जानता है 

हर समय तुम्हें तपती हुई 

धूप अच्छी नहीं लगती 

कम से कम तब तो 

बिल्कुल नहीं जब अलसाई सी 

आंखें सुबह हैं जगती 

इसीलिए वह ठंडी बयार के साथ 

अपनी सुर्ख लाल किरणों के साथ 

तुम्हें जगाने चला आता है 

उसके आलिंगन स्पर्श से 

भला कौन हर तरह का 

सुख नहीं पाता है 

बाद में वही सूरज तपता भी है 

जलाता भी है और पसीने का 

एक समंदर भी बहता है 

पर समय परिस्थिति के साथ 

कैसे बदलते रहना है इसी का 

संदेश तो वह हमारे साथ 

हमारे सामने हर पल कहता है आलोक चांटिया

Wednesday, December 21, 2022

सूरज से सीखना होगा

 सूरज रोज सुबह 

पूरब से आता है 

पश्चिम में डूबता है 

पर भला वह कब अपने

एक ही काम से उबता  है 

फिर रोज-रोज साथ चलकर भी

सूरज से तुम यह 

क्यों नहीं सीख पाए 

जिंदगी में नीरसता है 

यह कहता हर कोई मिल जाता है 

क्या सच में हम में से कोई 

सूरज से कुछ भी सीख पाता है

जब भी वह पूरब से रोज

सुबह निकल कर 

हमारे सामने आता है 

सोच के देख मानव सूरज हमको 

एक ही जीवन एक ही काम 

एक ही पथ एक ही क्रम के बारे में

 कितना कुछ बता जाता है

तेरा जीवन भी 

सूरज की तरह बन सकता है 

जब उसी की तरह की गति

 तू अपने भीतर रोज पाता है

आलोक चांटिया

Sunday, December 11, 2022

घोड़े की गर्मी से

 मुझे भी जीने दो ...........


कूड़े की गर्मी से ,

जाड़े की रात ,

जा रही है ,

पुल पर सिमटे ,

सिकुड़ी आँख ,

जाग रही है ,

कमरे के अंदर ,

लिहाफ में सिमटी ,

सर्द सी ठिठुरन ,

दरवाजे पर कोई ,

अपने हिस्से की ,

सांस मांग रही है ,

याद करना अपनी ,

माँ का ठण्ड में ,

पानी में काम करना ,

खुली हवा में आज ,

जब तुम्हारी ऊँगली ,

जमी जा रही है ,

क्यों नहीं दर्द ,

किसी का किसी को ,

आज सर्द आलोक ,

जिंदगी क्यों सभी की ,

बर्फ सी बनती ,

पिघलती जा रही है ...................




आप अपने उन कपड़ों को उन गरीबों को दे दीजिये जो इस सर्दी के कारण मर जाते है हो सकता है आपके बेकार कपडे उनको अगली सर्दी देखने का मौका दे , क्या आप ऐसे मानवता के कार्य नहीं करना चाहेंगे ??????? विश्व के कुल गरीबों के २५% सिर्फ आप के देश में रहते है इस लिए ये मत कहिये कि ढूँढू कहाँ ?? आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Saturday, December 10, 2022

फेंकी हुई रोटी

 घर के बाहर ,

अक्सर दो चार ,

रोटी फेंकी जाती है ,

कभी उसको ,

गाय खाती है ,

कभी कुत्ते खाते,

मिल जाते है ,

घर के बाहर ,

खड़ा एक भूखा ,

आदमी भूख की ,

गुहार लगाता है ,

उसे झिड़की ,दुत्कार ,

नसीहत मिलती है ,

पर वो घर की ,

रोटी नहीं पाता है ,

आदमी के साथ ,

आदमी का यह कैसा, 

रिश्ता चलता है ,

हर आदमी दूसरे को, 

क्यों पैसे से तोलता, 

यहां मिलता है...



जब आपके पास रोज घर के बाहर फेकने के लिए रोटी है तो क्यों नहीं रोज दो ताजी रोटी किसी भूखे को खिलाना शुरू कर देते है क्या मानवता का ये काम आपको पसंद नहीं कब तक गाय और कुत्तो को रोटी खिलाएंगे , ये मत कहियेगा जानवर वफादार होता है , आप बस घर के बाहर पड़ी रोटी पर सोचिये ........... आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Wednesday, December 7, 2022

क्यों मानव हम कहलाए

 चारों तरफ मोती ,

बिखरे रहे मैं ही ,

पपीहा न बन पाया ,

स्वाति को न देख ,

और न समझ पाया ,

मानव बन कर ,,

भला मैंने क्या पाया ?

ना नीर क्षीर ,

को हंस सा कभी ,

अलग ही कर पाया ,

ना चींटी , कौवों ,

की तरह ही ,

ना ही श्वानों की ,

तरह भी ,

संकट में नहीं ,

कंधे से कन्धा मिला ,

लड़ क्यों ना पाया ,

मैं मानव क्यों ,

बन नहीं पाया ?

सोचता हूँ अक्सर ,

मानव सियार क्यों ,

नहीं कहलाया ,

हिंसक शेर , भालू ,

विषधर क्यों ,

नहीं कहलाया ?

अपनों के बीच ,

रहकर उनको ही ,

खंजर मार देने के , 

गुण में कही मानव ,

जानवरों से इतर ,

मानव तो नहीं कहलाया ............



मुझे नहीं मालूम कि क्यों मनुष्य है हम और किसके लिए है हम कोई कि अगर आपको जरूरत है है तो तो आप किसी मनुष्य के बारे में जानने की कोशिश करते भी है कि वो जिन्दा है या मर गया वरना आप किसी दूसरे मनुष्य में अपना मतलब ढूंढने लगे रहते है | मैं भी इसका हिस्सा हूँ मैं किसी को दोष नही दे रहा बस समझना चाहता हूँ कि जानवर के गुण तो हमें पता है पर हम!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!आज मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गया थोड़े घाव है जो एक दो दिन में भर जायेंगे

Monday, December 5, 2022

सुबह का असर

 निकलकर अंधेरों से सुबह दस्तक तक दे रही है

ठंडी हवाओं से हर दिशा हर सांस खिल रही है 

तुम भी उजालों में आज खोज लेना अपने रास्ते आलोक

 डगर पर सूरज की किरणें तेरे साथ हो रही है 

आलोक चांटिया




हवाओं का रुख कुछ इस तरह हो गया है 


सूरज का रुख आलोक जिस तरह हो गया है 


कभी तपिश तो कभी ठंड का एहसास करा जाती है 


ताल्लुकात का असर अब सरेआम हो गया है 


आलोक चांटिया

सुबह के साथ होने का मजा

 निकलकर अंधेरों से सुबह दस्तक तक दे रही है

ठंडी हवाओं से हर दिशा हर सांस खिल रही है 

तुम भी उजालों में आज खोज लेना अपने रास्ते आलोक

 डगर पर सूरज की किरणें तेरे साथ हो रही है 

आलोक चांटिया

Saturday, December 3, 2022

सच से दूर

 मानते क्यों नहीं 

इस दुनिया में आने के लिए 

हर बीज ने एक अंधेरा 

गर्भ में जिया है 

पृथ्वी को तोड़कर या

 गर्भ की असीम प्रसव पीड़ा

के बाद ही किसी ने 

इस दुनिया में जन्म लिया है

 फिर क्यों भागते हो 

कोई भी दर्द या अंधेरा देखकर 

प्रकृति ने तुम्हें इस 

दुनिया का सच तुम्हें 

दुनिया में लाने से पहले ही दे दिया है 

जी लो इनको भी 

जीवन का असीम पहलू समझकर

 यही तो दर्शन मां,

 प्रकृति, भगवान सभी ने 

इस पृथ्वी के हर प्राणी को दिया है

आलोक चांटिया

अर्थ से दूर

 जब सुबह होने का 

अर्थ जानते हो तो ,

क्यों नहीं उजाले का

अर्थ जीवन में मानते हो l

आंखें बंद करके क्यों ,

पड़े रहते हो कमरो में ,

गति से ही सबकुछ बदलता है 

जब यह खुद मानते हो l 

Sunday, November 27, 2022

जिंदगी मौत की आवाज में

 यूं ना सांसों को मेरी दफन करो अपने इस अंदाज में

 

मैंने तो इसे मिलाया था किसी नए आगाज में

 

मिलकर भी अगर दूर तक अकेला ही दिखाई दिया

 

कैसे कहूं तू जिंदगी थी आलोक मौत की आवाज में 

आलोक चांटिया

Friday, November 25, 2022

सांसो को कोई बटोरता नहीं

 मैं जा रहा हूं वहां जहां से कोई लौटता नहीं 


जो छूट गया उस राहसे कोई गुजरता नहीं 


फिर भी हम बटोरते मुट्ठी में ना जाने कितनी खुशियां 


मौत से डर कर कोई सांसो को बटोरता नहीं 


आलोक चांटिया

तेरी तड़प

 इन आंखों से रोज न जाने कितनी जिंदा तस्वीरें गुजरती हैं

 

पर मुझे तो सिर्फ तेरी ही तड़प और तुझी पर यह मरती हैं

 

कल की तमन्ना लेकर फिर ढूंढ लूंगा तुझे इन्हीं हवाओं में


मेरी इस हिम्मत पर रोज मेरी सांसे न जाने कितना हंसती है

 

आलोक चांटिया

Tuesday, November 22, 2022

झूठी खुशियों का दौर

 अब इस कदर हम अपनी खुशी दुनिया को दिखाने लगे हैं 

अगर खरीदी है एक भी बनियान तो उसे सोशल मीडिया को बताने लगे हैं

 अब नहीं रह गई है जिंदगी में दुख की कोई एक कतरन भी

 बूढ़े मां बाप को किसी वृद्धा आश्रम में जाकर बसाने लगे हैं 

अब हर तरफ है खुद को दिखाने की एक ऐसी जद्दोजहद 

जिंदगी से ज्यादा एक फोटो में खुद को दिखाने लगे हैं

 एकपल मे नाप लेते हैं हम किसी की भी इस जिंदगी का पैमाना 

अब हम दर्द के दरिया को भी खुशियों की बिसात पर बिछाने लगे हैं 

सोचता रहता हूं आलोक कहां और कब रहता है मुट्ठी में 

खुले हाथों को गरीबी का पैमाना बताने लगे हैं 

इस चकाचौंध के दायरे में फस कर हम खुद से दूर हो रहे हैं 

कस्तूरी बसाकर उसे ढूंढने के रास्ते बताने लगे हैं 

थोड़ी देर तो ठहर जाओ उस जंगल की दरख्त की तरह 

जो अपनी बाहों में न जाने कितनों के बसेरे बसाने लगे हैं 

माना कि कोई जान नहीं पाएगा कितनों को खुशियां बांटी तुमने

 तेरे चेहरे का नूर काफी होगा जो तेरी हकीकत बताने लगे हैं 


आलोक चाटिया

उम्मीद जिन्हें हो

 जिन्हें उम्मीद है पूरब से उनको आगे आने दो 


जिन्होंने मान लिया सबकुछ पश्चिम को उनको जाने दो


 मुट्ठी जब भी बांधोगे अंधेरा रहकर जाएगा 


खुले हाथों से जो जी ले उसे आगे आने दो 


आलोक चांटिया

जीवन का अर्थ कितना तदर्थ

 सूरज उठता है तो रौशनी लाता है

 सूरज गिरता है तो अँधेरा पाता है

 तुम्हारे ही अंदर है सब कुछ देखो

रत्न के लिए समुंदर में उतरा जाता है

 धरती को खोद कर ही दाना आता है 

नदी का नाम जमीं का बटवारा पाता है

 क्यों निराश हो रहे हो जिन्दगी से 

हर रात के बाद पूरब सबेरा लाता है

एक कछुए से हार जाता है  खरगोश

निरंतर चलने वाला ही जीत जाता है

एक कदम तो बढ़ाओ हिम्मत करके

एक और एक मिल ग्यारह हो जाता है

समझलोगे जिसदिन जीवन का यह अर्थ 

तुम्हारा होना दुनिया में नहीं होगा तदर्थ



 आइये आप के अंदर एक बेहतर आदमी खोजा जाए 


डॉ आलोक चांटिया

Sunday, November 20, 2022

हम कहाँ आ गए भ्रष्टाचार में

 भ्रष्टाचार को हम अपनी विरासत क्यों समझने लगे हैं अतीत के पन्नों को झांकने की जरूरत नहीं लेकिन यह सच है कि जब देश स्वतंत्र हुआ तो सबसे पहला घोटाला स्वतंत्र भारत में चिपका हुआ था और फिर तो न जाने कितने घोटालों की बाढ़ से आ गई लेकिन भारतीय संविधान की प्रस्तावना के प्रथम शब्द हमने पता नहीं क्यों वह भाव नहीं आया कि हम यह समझ सके कि हम एक दूसरे के लिए ही जीने के लिए बने हैं फिर भ्रष्टाचार धोखा देना यह सब कैसे होने लगा लेकिन स्वतंत्र भारत की जड़ों में भ्रष्टाचार इतना रच बस गया है कि आज अगर सरकार चाहे भी कि भ्रष्टाचार समाप्त हो जाए तो पता नहीं क्यों अधिकारी ही अब नहीं चाहते हैं कि वह जिन प्रयोजनों के निमित्त नियुक्त किए गए हैं उसके अंतर्गत वह कुछ काम ऐसे करें जिससे भारत का हर शहर हड़प्पा और सिंधु घाटी सभ्यता कालीन शहरों के बजाय नवीन शहर लगे आधुनिक लगे और उन मानकों के अनुरूप शहरों में रहते हुए व्यक्ति गरिमा का अनुभव करें जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में संभवतः बताया गया है और इसी को स्पष्ट करने के लिए मैं आपको एक उदाहरण देता हूं संलग्न फोटो से स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार किस तरह से किया जाता है वर्ष 2020 में उत्तर प्रदेश के जिलों में दूसरा सबसे पिछड़ा जिला बहराइच और उसके शहर के नगर पालिका परिषद में आने वाले वार्ड नंबर 26 में एक ठेकेदार द्वारा सरकार के द्वारा दिए गए पैसे और टेंडर के बाद पासवर्ड को जब बनाया गया तो उस सार्वजनिक सड़क पर समाज के कुछ अराजक तत्वों द्वारा कब्जा करके अपना बोर्ड लगा दिया गया लेकिन भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों के प्रकाश में एक भारतीय के कर्तव्यों को समझते हुए जब अखिल भारतीय अधिकार संगठन द्वारा इसकी शिकायत की गई तो प्रारंभिक स्तर पर यही माना गया कि यह अतिक्रमण है अवैध कब्जा है और उस अराजक व्यक्ति को नोटिस दी गई कि वह अपना बोर्ड हटाए लेकिन कुछ दिन बाद भी वह बोर्ड जब नहीं हटा तो संगठन द्वारा फिर इस पर आपत्ति की गई तब पुनः या सूचना दी गई कि नहीं निर्देशित कर दिया गया है हटाने के लिए लेकिन उसके बाद भी जब नहीं हटाओ तीसरी बार जब यह पूछा गया कि अब तक अवैध कब्जा क्यों नहीं हटाया गया तब एक विस्मयकारी स्थिति सामने आई अधिशासी अधिकारी नगर पालिका परिषद बहराइच ने लिखित रूप से अपने हस्ताक्षर से यह स्पष्ट किया कि अवैध कब्जा करने वाले ने शुल्क अदा कर दिया है इसलिए वह बोर्ड लगाना अब वैध हो गया है लेकिन यह एक विस्मयकारी स्थिति थी इसलिए भारत के किसी भी प्रचलित कानून में उस स्थिति की एक प्रति मांगी गई जिससे है स्पष्ट हो सके कि सार्वजनिक सड़क पर कोई भी भारतीय नागरिक शुल्क अदा करके कब्जा कर सकता है और मजेदार बात यह थी कि भारत सरकार के प्रधानमंत्री पोर्टल पर अधिकारी लगातार एक दो बार नहीं कम से कम 10 बार यह लिख कर देते रहे कि शुल्क अदा कर दी गई है सब कुछ ठीक है और इसलिए अब वह कब्जा जायज है लेकिन संगठन लगातार या कहता रहा कि मुझे कम से कम यह बताया जाए कि किस कानून में आ जाए और फिर जो शुल्क अदा करी गई वह शुल्क जमा कहां करी गई है उसका विवरण दिया जाए और यदि यह वैधानिक कार्य है तो फिर संगठन को भी उसी तरह सड़क पर बोर्ड लगाने की अनुमति दी जाए लेकिन भ्रष्टाचार की जड़ों में बैठे हुए प्रशासन द्वारा कभी भी इन बातों का उत्तर नहीं दिया गया बल्कि अपनी ही बात पर अड़े रहे और जब यह शिकायत नगर पालिका परिषद से आगे बढ़कर जिला प्रशासन में गई तो सिटी मजिस्ट्रेट द्वारा भी अपने हस्ताक्षर से या लिख कर दे दिया गया कि अधिशासी अधिकारी नगर पालिका परिषद ने बताया कि ऐसा कोई अवैधानिक कब्जा नहीं है और इससे यह स्पष्ट हुआ कि कोई भी अधिकारी ना तो मौके पर अवलोकन करने जाता है ना ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है और ना ही वह देश के कानून में स्वयं विश्वास रखता है क्योंकि जो भी बातें कही जा रही थी वह पूर्ण रूप से लिख कर दी जा रही थी उसके बाद भी अधिकारियों द्वारा अपने हस्ताक्षर से इस तरह के पत्रों का लिखा जाना बहुत ही विस्मयकारी था इसके बाद संगठन ने फिर सिटी मजिस्ट्रेट बहराइच को संलग्न दस्तावेज करते हुए लिखा कि अगर अवैध कब्जा नहीं है तो फिर यह लगा हुआ सरकार के टेंडर के पास सड़क पर बोर्ड क्या है इस पर कभी कोई ध्यान नहीं दिया गया जिससे स्पष्ट हुआ कि भारत सरकार और प्रदेश सरकार में अधिकारी सामान्य नागरिक द्वारा की गई शिकायत को न तो कोई तवज्जो देते ना ही उनके दृष्टिकोण में नागरिक का कोई मतलब है कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज भी अंग्रेजों की तरह ही अधिकारी कीड़े मकोड़े से ज्यादा अधिक नागरिकों को कुछ नहीं समझते नहीं तो एक बार की शिकायत करने के बाद गलत बात को संरक्षण देना सही बात पर कोई जवाब ना देना भ्रष्टाचार के अलावा किस बात का संकेत दे रहा है इस पर एक बहस की आवश्यकता है किसी भी संगठन द्वारा सूचना अधिकार अधिनियम में उत्तर प्रदेश सरकार से सूचना मांगी गई जिसमें यह जानने का प्रयास किया गया कि सरकार द्वारा टेंडर से पास पैसे और राजस्व से स्वीकृत सड़क बनाने के बाद उस पर कोई भी व्यक्ति शुल्क अदा करके किस तरह अपना बोर्ड लगा सकता है यहां पर भी जन सूचना अधिकार अधिनियम का पोल खुलती नजर आई करीब 1 साल से ज्यादा लड़ने के बाद जब जिला प्रशासन बहराइच पर 25000 के जुर्माने की नोटिस हो गई तब जाकर 15 नवंबर 2022 को अवैध रूप से कब्जा किए गए बोर्ड को हटाया गया जो एक स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार का उदाहरण है और उससे ज्यादा सफेदपोश अपराध का उदाहरण है इसमें अधिकारियों को यह पता है कि अपने कर्तव्यों अपने पद का दुरुपयोग करने के बाद भी ना तूने कोई सजा होगी उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही होगी वह किसी न किसी तकनीकी कारणों से बच जाएंगे लेकिन यह सोचनीय स्थिति है जिस पर सभी को विचार करना चाहिए कि क्या वास्तव में हम भ्रष्टाचार की तरफ ज्यादा तेजी से बढ़ रहे हैं क्या सरकार से ज्यादा प्रशासन या नहीं चाहता है कि किसी भी तरह भ्रष्टाचार समाप्त हो क्या वह अराजक तत्वों के साथ ज्यादा खड़ा दिखाई देता है और ऐसे में स्वतंत्र भारत में प्रजातंत्र का अर्थ क्या खत्म हो रहा है इसीलिए अब नागरिक कुछ बोलना नहीं चाहते हैं गलत होता देख कर चुप रहना चाहते हैं ऐसे में आवश्यकता है एक वास्तविक प्रजातंत्र की वास्तविक स्वतंत्रता की जिसके लिए अभी दिल्ली बहुत दूर है डॉक्टर आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Tuesday, November 15, 2022

पौधे की सीख

 हरियाली की चाहत लेकर,

पौधा जो दुनिया में आता है,

मिलती उसको तपन धूप की ,

कभी बिन पानी के रह जाता है ,

दुनिया को सुख देने की चाहत में, 

जैसे-जैसे वह बढ़ता जाता है ,

कोई तोड़ता पाती उसकी ,

कोई भूख उसी से मिटाता है ,

अच्छा करने की चाहत का ,

अनूठा फल वह पाता है, 

कोई तोड़ता टहनी उसकी, 

कोई घर उसी से बनाता है,

 किसी के घर में चूल्हा जलता ,

कोई डंडा उसी से बनाता है ,

क्या पाता है दुनिया में आकर ,

एक पौधा यही हमें समझाता है, 

अच्छा काम करने वालों को ,

संदेश यही दे जाता है ,

हर दर्द उपेक्षा सहकर तुम भी, 

बस रुकना ना चलते जाना ,

पौधे सा जीवन तुम लेकर ,

मुस्कान किसी को बस देते जाना ।

आलोक चांटिया

Wednesday, January 5, 2022

यह सच है कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं.... कविता

 यह सच है कि,

 मैं तुमसे प्रेम करता हूं ,

तुम पर मरता भी हूं ,

चाहता हूं तुमको पाना ,

बार-बार तुम्हारे जीवन में आना, 

और कई बार पा भी लेता हूं,

 पूरा और पूरा पर अक्सर,

 रह जाता हूं अधूरा ,

जब हाथ में रह जाता है,

 सिर्फ तुम्हारी एक परछाई, 

तुम्हारे जिस्म का गोश्त,

 बहता हुआ खून ,

बिखराव बिना सुकून,

और कुछ अस्थियों के टुकड़े,

जिन को जोड़ने की लाख, 

कोशिश के बाद एक,

 सन्नाटा ही पाता हूं ,

शायद मैं तुम्हारी आत्मा से,

 दूर चला जाता हूं ,

प्रेम मैंने किस से किया,

 यह कहां जान पाता हूं,

आत्मा का सच,

 कहां मान पाता हूं ,

रह जाता हूं सिर्फ,

 छोटी बातों में प्यार के ,

क्योंकि प्रेम का सच तो,

 उस रूह उसे था जिससे,

 मैं दूर था इकरार में ,

इसीलिए आज भी ,

अकेला घूम रहा हूं ,

और तुमको हर गली,

 हर दरवाजे पर ढूंढ रहा हूं,

प्रेम की ऐसी ही कहानी,

 करोड़ों लोग जी रहे हैं ,

उजाले में रहकर,

 अंधेरों को पी रहे हैं

आलोक चांटिया

अक्सर लोग शब्दों को तोड़कर नहीं देखते.... कविता

 अक्सर लोग शब्दों को ,

तोड़कर नहीं देखते ,

यहां तक कि उसे थोड़ा सा,

 मोड़ कर भी नहीं देखते,

 ना जाने कितनी अनंत,

 ऊर्जा लिए हुए वह आता है, 

रिश्तो  के अनंत बंधनों में, 

हर किसी को पाता है ,

जिसके लायक जितना,

 अर्थ समेटे रहता,

 उतनी बातें चुप ,

रहकर भी वह कहता,

 शब्दों की यह गहरी माया ,

अनंत से लेकर ब्रह्मांड के भीतर,

 जो भी जब भी समझ है पाया, 

शब्दों से आलिंगन करके,

 वह जीवन को जीते हैं पाया।

 वह जीवन को जीते हैं पाया। 

आलोक चांटिया

कली के भीतर ही फूल का सार है,,,,,, कविता

 कली के भीतर ही,

 फूल का सार है ,

अंधेरों में ही रोशनी का,

 निकलता संसार है ,

समय कुछ भी नहीं सिर्फ,

 मन का फेर है ,

सब कुछ तुम्हारी मुट्ठी में है ,

नहीं समझे तो सब अंधेर है,

 यह समझना ही तुम्हारी भूल है, 

कि कल एक सुंदर समय आएगा, 

जो अपने अंदर को पहचान लेगा, 

वही बाहर भी सुख पायेगा ,

समय तुम्हारे रहने न रहने का, 

एहसास कराने का एक पैमाना है, 

जिसने यह समझ लिया उसका 

अस्तित्व ही समय ने स्वयं माना है,

 समय को महीना, हफ्ता, साल,

 कहकर जिन प्रसन्नता को ,

तुम विकल दिखाई दे रहे हो,

 वह तो सिर्फ तुम्हारी यात्रा है,

 क्या उसे तुम कोई पूर्णता दे रहे हो ,

जिस दिन अपने अंदर के,

 आदमी को पहचान लोगे, 

आत्मविश्वास को इस संसार में, 

एक नया नाम दोगे ,

वही क्षण होगा तुम्हारा नया साल, 

और तुम्हारे जीवन का एक अर्थ, 

वरना यूं ही गुजरते रहेंगे साल दर, 

साल और तुम होगे सिर्फ तदर्थ। 

आलोक चांटिया

रेत के छोटे-छोटे कणों से बिखरा हूं

 रेत के ,

छोटे छोटे ,

कणों सा ,

बनकर बिखरा हूँ ,

मैं पत्थर ,

अपने जीवन ,

की दुर्दशा से ,

बहुत सिहरा हूँ ,

पर खुश भी हूं संग मैं तेरे ,

अगर रेत बना तो ,

मकान बनाओगे ,

और पत्थर को तो तुम ,

भगवान कहकर ,

मंदिर में सजाओगे ,

क्योंकि तुम मानव हो ,

तुमको टूटने बिखरने को भी, संजोना आता है ,

एक तिनके से ,

घर बनाना आता है ,

थपेड़ों ,अंधेरों ,तूफानों से ,

जीने का तुम्हारा ,

अपना एक सुंदर नाता है

डॉ आलोक चांटिया

सूरज के रास्ते में चांद भी आता है

 सूरज के रास्ते में ,

चाँद भी आता है ,

हर सुबह का पथ ,

अंधकार भी पाता है ,

क्यों देखते हो जीवन ,

हर दर्द से दूर ,

कभी कभी दर्द ,

किलकारी के काम आता है ,

इस दुनिया में कुछ भी ,

तभी पूरा है जब उसका ,

एक हिस्सा अधूरा है ,

कितनी भी कोशिश कर लो ,

रात के साथ उजाला होगा,

 सुबह के साथ शाम होगी,

 सुख के साथ दुख होगा

 काले के साथ सफेद होगा,

 चूहा होगा तो बिल्ली होगी,

धरती होगी तो आकाश भी होगा,

 फिर सब जानकर भी,

 तुम क्यों रो रहे हो?

 किसलिए इतना हताश और, 

निराश हो रहे हो,

 सिर्फ संयम ही से हर पल

चलते जाना है,

 एक बार फिर जो तुम,

 चाहते हो उसे पाना है,

 तुमने जब से अधूरे पन को ही, 

पूरा जीवन मान लिया है ,

इसीलिए दुख, अवसाद, निराशा 

अकेलापन ज्यादा जान लिया है, 

थोड़ा उस पार भी देखने की, 

आदत आलोक डाल लो,

 जीवन सुंदर था है,

 यह सच भी मान लो।

आलोक चांटिया