कली के भीतर ही,
फूल का सार है ,
अंधेरों में ही रोशनी का,
निकलता संसार है ,
समय कुछ भी नहीं सिर्फ,
मन का फेर है ,
सब कुछ तुम्हारी मुट्ठी में है ,
नहीं समझे तो सब अंधेर है,
यह समझना ही तुम्हारी भूल है,
कि कल एक सुंदर समय आएगा,
जो अपने अंदर को पहचान लेगा,
वही बाहर भी सुख पायेगा ,
समय तुम्हारे रहने न रहने का,
एहसास कराने का एक पैमाना है,
जिसने यह समझ लिया उसका
अस्तित्व ही समय ने स्वयं माना है,
समय को महीना, हफ्ता, साल,
कहकर जिन प्रसन्नता को ,
तुम विकल दिखाई दे रहे हो,
वह तो सिर्फ तुम्हारी यात्रा है,
क्या उसे तुम कोई पूर्णता दे रहे हो ,
जिस दिन अपने अंदर के,
आदमी को पहचान लोगे,
आत्मविश्वास को इस संसार में,
एक नया नाम दोगे ,
वही क्षण होगा तुम्हारा नया साल,
और तुम्हारे जीवन का एक अर्थ,
वरना यूं ही गुजरते रहेंगे साल दर,
साल और तुम होगे सिर्फ तदर्थ।
आलोक चांटिया
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