भ्रष्टाचार को हम अपनी विरासत क्यों समझने लगे हैं अतीत के पन्नों को झांकने की जरूरत नहीं लेकिन यह सच है कि जब देश स्वतंत्र हुआ तो सबसे पहला घोटाला स्वतंत्र भारत में चिपका हुआ था और फिर तो न जाने कितने घोटालों की बाढ़ से आ गई लेकिन भारतीय संविधान की प्रस्तावना के प्रथम शब्द हमने पता नहीं क्यों वह भाव नहीं आया कि हम यह समझ सके कि हम एक दूसरे के लिए ही जीने के लिए बने हैं फिर भ्रष्टाचार धोखा देना यह सब कैसे होने लगा लेकिन स्वतंत्र भारत की जड़ों में भ्रष्टाचार इतना रच बस गया है कि आज अगर सरकार चाहे भी कि भ्रष्टाचार समाप्त हो जाए तो पता नहीं क्यों अधिकारी ही अब नहीं चाहते हैं कि वह जिन प्रयोजनों के निमित्त नियुक्त किए गए हैं उसके अंतर्गत वह कुछ काम ऐसे करें जिससे भारत का हर शहर हड़प्पा और सिंधु घाटी सभ्यता कालीन शहरों के बजाय नवीन शहर लगे आधुनिक लगे और उन मानकों के अनुरूप शहरों में रहते हुए व्यक्ति गरिमा का अनुभव करें जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में संभवतः बताया गया है और इसी को स्पष्ट करने के लिए मैं आपको एक उदाहरण देता हूं संलग्न फोटो से स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार किस तरह से किया जाता है वर्ष 2020 में उत्तर प्रदेश के जिलों में दूसरा सबसे पिछड़ा जिला बहराइच और उसके शहर के नगर पालिका परिषद में आने वाले वार्ड नंबर 26 में एक ठेकेदार द्वारा सरकार के द्वारा दिए गए पैसे और टेंडर के बाद पासवर्ड को जब बनाया गया तो उस सार्वजनिक सड़क पर समाज के कुछ अराजक तत्वों द्वारा कब्जा करके अपना बोर्ड लगा दिया गया लेकिन भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्वों के प्रकाश में एक भारतीय के कर्तव्यों को समझते हुए जब अखिल भारतीय अधिकार संगठन द्वारा इसकी शिकायत की गई तो प्रारंभिक स्तर पर यही माना गया कि यह अतिक्रमण है अवैध कब्जा है और उस अराजक व्यक्ति को नोटिस दी गई कि वह अपना बोर्ड हटाए लेकिन कुछ दिन बाद भी वह बोर्ड जब नहीं हटा तो संगठन द्वारा फिर इस पर आपत्ति की गई तब पुनः या सूचना दी गई कि नहीं निर्देशित कर दिया गया है हटाने के लिए लेकिन उसके बाद भी जब नहीं हटाओ तीसरी बार जब यह पूछा गया कि अब तक अवैध कब्जा क्यों नहीं हटाया गया तब एक विस्मयकारी स्थिति सामने आई अधिशासी अधिकारी नगर पालिका परिषद बहराइच ने लिखित रूप से अपने हस्ताक्षर से यह स्पष्ट किया कि अवैध कब्जा करने वाले ने शुल्क अदा कर दिया है इसलिए वह बोर्ड लगाना अब वैध हो गया है लेकिन यह एक विस्मयकारी स्थिति थी इसलिए भारत के किसी भी प्रचलित कानून में उस स्थिति की एक प्रति मांगी गई जिससे है स्पष्ट हो सके कि सार्वजनिक सड़क पर कोई भी भारतीय नागरिक शुल्क अदा करके कब्जा कर सकता है और मजेदार बात यह थी कि भारत सरकार के प्रधानमंत्री पोर्टल पर अधिकारी लगातार एक दो बार नहीं कम से कम 10 बार यह लिख कर देते रहे कि शुल्क अदा कर दी गई है सब कुछ ठीक है और इसलिए अब वह कब्जा जायज है लेकिन संगठन लगातार या कहता रहा कि मुझे कम से कम यह बताया जाए कि किस कानून में आ जाए और फिर जो शुल्क अदा करी गई वह शुल्क जमा कहां करी गई है उसका विवरण दिया जाए और यदि यह वैधानिक कार्य है तो फिर संगठन को भी उसी तरह सड़क पर बोर्ड लगाने की अनुमति दी जाए लेकिन भ्रष्टाचार की जड़ों में बैठे हुए प्रशासन द्वारा कभी भी इन बातों का उत्तर नहीं दिया गया बल्कि अपनी ही बात पर अड़े रहे और जब यह शिकायत नगर पालिका परिषद से आगे बढ़कर जिला प्रशासन में गई तो सिटी मजिस्ट्रेट द्वारा भी अपने हस्ताक्षर से या लिख कर दे दिया गया कि अधिशासी अधिकारी नगर पालिका परिषद ने बताया कि ऐसा कोई अवैधानिक कब्जा नहीं है और इससे यह स्पष्ट हुआ कि कोई भी अधिकारी ना तो मौके पर अवलोकन करने जाता है ना ही अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है और ना ही वह देश के कानून में स्वयं विश्वास रखता है क्योंकि जो भी बातें कही जा रही थी वह पूर्ण रूप से लिख कर दी जा रही थी उसके बाद भी अधिकारियों द्वारा अपने हस्ताक्षर से इस तरह के पत्रों का लिखा जाना बहुत ही विस्मयकारी था इसके बाद संगठन ने फिर सिटी मजिस्ट्रेट बहराइच को संलग्न दस्तावेज करते हुए लिखा कि अगर अवैध कब्जा नहीं है तो फिर यह लगा हुआ सरकार के टेंडर के पास सड़क पर बोर्ड क्या है इस पर कभी कोई ध्यान नहीं दिया गया जिससे स्पष्ट हुआ कि भारत सरकार और प्रदेश सरकार में अधिकारी सामान्य नागरिक द्वारा की गई शिकायत को न तो कोई तवज्जो देते ना ही उनके दृष्टिकोण में नागरिक का कोई मतलब है कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज भी अंग्रेजों की तरह ही अधिकारी कीड़े मकोड़े से ज्यादा अधिक नागरिकों को कुछ नहीं समझते नहीं तो एक बार की शिकायत करने के बाद गलत बात को संरक्षण देना सही बात पर कोई जवाब ना देना भ्रष्टाचार के अलावा किस बात का संकेत दे रहा है इस पर एक बहस की आवश्यकता है किसी भी संगठन द्वारा सूचना अधिकार अधिनियम में उत्तर प्रदेश सरकार से सूचना मांगी गई जिसमें यह जानने का प्रयास किया गया कि सरकार द्वारा टेंडर से पास पैसे और राजस्व से स्वीकृत सड़क बनाने के बाद उस पर कोई भी व्यक्ति शुल्क अदा करके किस तरह अपना बोर्ड लगा सकता है यहां पर भी जन सूचना अधिकार अधिनियम का पोल खुलती नजर आई करीब 1 साल से ज्यादा लड़ने के बाद जब जिला प्रशासन बहराइच पर 25000 के जुर्माने की नोटिस हो गई तब जाकर 15 नवंबर 2022 को अवैध रूप से कब्जा किए गए बोर्ड को हटाया गया जो एक स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार का उदाहरण है और उससे ज्यादा सफेदपोश अपराध का उदाहरण है इसमें अधिकारियों को यह पता है कि अपने कर्तव्यों अपने पद का दुरुपयोग करने के बाद भी ना तूने कोई सजा होगी उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही होगी वह किसी न किसी तकनीकी कारणों से बच जाएंगे लेकिन यह सोचनीय स्थिति है जिस पर सभी को विचार करना चाहिए कि क्या वास्तव में हम भ्रष्टाचार की तरफ ज्यादा तेजी से बढ़ रहे हैं क्या सरकार से ज्यादा प्रशासन या नहीं चाहता है कि किसी भी तरह भ्रष्टाचार समाप्त हो क्या वह अराजक तत्वों के साथ ज्यादा खड़ा दिखाई देता है और ऐसे में स्वतंत्र भारत में प्रजातंत्र का अर्थ क्या खत्म हो रहा है इसीलिए अब नागरिक कुछ बोलना नहीं चाहते हैं गलत होता देख कर चुप रहना चाहते हैं ऐसे में आवश्यकता है एक वास्तविक प्रजातंत्र की वास्तविक स्वतंत्रता की जिसके लिए अभी दिल्ली बहुत दूर है डॉक्टर आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन
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