सूरज रोज सुबह
पूरब से आता है
पश्चिम में डूबता है
पर भला वह कब अपने
एक ही काम से उबता है
फिर रोज-रोज साथ चलकर भी
सूरज से तुम यह
क्यों नहीं सीख पाए
जिंदगी में नीरसता है
यह कहता हर कोई मिल जाता है
क्या सच में हम में से कोई
सूरज से कुछ भी सीख पाता है
जब भी वह पूरब से रोज
सुबह निकल कर
हमारे सामने आता है
सोच के देख मानव सूरज हमको
एक ही जीवन एक ही काम
एक ही पथ एक ही क्रम के बारे में
कितना कुछ बता जाता है
तेरा जीवन भी
सूरज की तरह बन सकता है
जब उसी की तरह की गति
तू अपने भीतर रोज पाता है
आलोक चांटिया
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