बालिका दिवस मानवाधिकार के दायरे
संस्कृति एक ऐसा शब्द है जिसको भारत के संदर्भ में इतना ज्यादा गंभीरता से लिया जाता है कि मानव के रूप में पैदा होने वाली बालिका भी देवी का दर्जा पाती है यहां पर यह समझना जरूरी है कि उन्हें बालिकाओं को देवी का दर्जा दिया जाता है जिनका मासिक स्राव नहीं आरंभ हुआ होता है या ऐसे भी कहा जा सकता है कि 9 साल से पहले जो बेटियां हैं उनको देवी कहा जाता है यही कारण है कि नवरात्र में इतनी ही उम्र की बेटियों की पूजा देवी के रूप में की जाती है आज बालिका दिवस देश मना रहा है और ऐसे में इस बात पर मनन करना आवश्यक है कि देश में हर वर्ष एक करोड़ छप्पन लाख गर्भपात होते हैं और प्रत्येक 9 पैदा होने वाली लड़कियों में से एक लड़की मार दी जाती है क्या सुखद कहा जा सकता है कि अभी लड़कियों को मारने में कमी आई है लेकिन जिस तरीके से आज लड़कियां ज्यादा असुरक्षित माहौल में जीने लगी है उसमें कोई व्यक्ति कहे या ना कहे उसने दो बातें स्वीकार कर लिया है एक तो आज भी वह जान निकाल कर घर देता है कि उसकी बेटियां वहां ना जाए जहां उसे खुद सुरक्षित महसूस नहीं हो रहा है और दूसरा अब उन्होंने भी या मान लिया है कि लड़कियां सब कुछ जानती हैं और अपने विषय में सोच समझ सकती हैं इसलिए वह अपने को सुरक्षित रखते हुए जीवन जीने के साथ आगे बढ़ सकती हैं और यहां पर आकर सुचिता जैसे शब्द को अब भारतीय संस्कृति से थोड़ा सा हटाकर देखा जाने लगा है शायद इसकी आवश्यकता भी है क्योंकि जब पुरुष के लिए सुचिता जैसे शब्दों का महत्व नहीं है तो महिलाओं के लिए भी नहीं होना चाहिए एक ही तरह के मानव होने के बाद संविधान के अनुच्छेद 14 में उनको समानता के बोध में मौलिक अधिकारों से वंचित रखा जाए यह उचित नहीं है लेकिन भारतीय संस्कृति सहित वैश्विक संस्कृति में महिला को सिर्फ शरीर के आधार पर ही देखा जाता है पुरुष समाज या कभी स्वीकार नहीं करता की किसी भी रिश्ते में खड़े होकर वह किसी महिला को उन लोगों के साथ देखें जिन्हें वह पसंद नहीं करता और यह बात पिता के लिए भी सत्य सिद्ध हो सकती है भाई के लिए भी सत्य सिद्ध हो सकती है प्रेमी के लिए भी सत्य सिद्ध हो सकती है और पति के लिए भी सत्य सिद्ध हो सकती है और यहीं आकर बालिका के जीवन में समानता का वह कड़वा विष दिखाई देता है जहां पर उसे दिन-रात या साबित करना पड़ता है कि वह सही है वह गलत नहीं है उसे न जाने पुरुषों की कितने संशय और अविश्वास से होकर गुजरना पड़ता है पर जीने की जिस संघर्ष की स्थिति को बालिकाओं ने चुना है उसमें उन्हें यह सब स्वीकार करना पड़ता है वह बात अलग है कि कोई भी पुरुष यदि चरित्रवान होकर स्वयं जीने लगे और वह यह सोचने लगे कि जब वह अपने शरीर की शुचिता को कोई महत्व नहीं देता है तो फिर वह किसी भी महिला के स्वरूप के लिए ऐसा कैसे सोच सकता है जिस दिन व्यक्ति में इस विमर्श के प्रति जागृति आ जाएगी लड़की के जीवन से सन से संदेश उसके कारण होने वाले कल आहा हत्या मारपीट उत्पीड़न आदि की समस्याएं स्वयं ही समाप्त हो जाएंगी विरासत में जो भी बातें कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में सीख लेता है उसे मिटा पाना आसान नहीं होता है और यही कारण है कि आज भी ज्यादातर व्यक्ति को यहां अच्छा लगता है कि उसके घर में लड़के पैदा हो लेकिन यह बात तब तक सही थी जब पारंपरिक जीवन था खेती होती थी पैदा होने वाले बच्चे के द्वारा पिता की संपत्ति का संरक्षण होता था अब ऐसा कुछ भी नहीं रहा है प्रगति की परिभाषा में कोई भी अपने मूल स्थान पर रोककर नहीं रहना चाहता है ऐसे में किसी को इस बात की ना रुचि होती है ना ही कोई पूछता है कि कौन किसका पिता है कौन किसका बाबा है किसके पास क्या विरासत है व्यक्ति के अपने व्यक्तिगत जीवन और प्रगति को ही सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है और ऐसी स्थिति में किसी भी परिवार में अब इस बात को लेकर विवाद नहीं होना चाहिए कि उनके घर में लड़के हैं या लड़की हैं आंकड़े यह कहते हैं कि जीवन की हर विधा में लड़कियों ने यह साबित किया है कि वह पुरुषों से बहुत आगे खड़ी है और वैसे भी एक मां बच्चे को जन्म देकर प्रसव पीड़ा को सहन करके अपना अमृत पान करा कर यह प्राकृतिक रूप से भी साबित करती है कि वह पुरुष से ज्यादा शक्तिशाली है वह सृजन करने में माहिर है यह बात अलग है कि आज तक परंपरागत समाज या नहीं समझ पाया है कि जब धान का बीज बोने परधान ही पैदा हो सकता है गेहूं का बीज बोने पर गेहूं ही पैदा हो सकता है तो भला इसके लिए मिट्टी को कैसे दूर किया जा सकता है इसके लिए औरत को कैसे दूर किया जा सकता है कि उसके गर्भ से लड़के ने जन्म लिया या लड़की ने इतने छोटे से दर्शन को न समझ पाने के कारण हर लड़की को इस दंश को जी कर रहना पड़ता है कि उसने क्यों लड़की को जन्म दिया यह भी बड़ी हास्यास्पद बात है कि जिस लड़की को देखकर सभी दुखी होते हैं उसी लड़की को पाने के लिए पूरा समाज पागल रहता है और यह स्थिति सिर्फ भारत जैसे देश में नहीं है यूरोपियन देशों में भी अट्ठारह सौ पचासी तक महिलाएं साइकिल नहीं चला सकती थी क्योंकि उससे उनकी टांगें दिखाई देने लगती थी यही नहीं 12 वीं शताब्दी से लेकर सोनम ही शताब्दी के बीच में जब तक यह बात स्पष्ट नहीं हो गई कि शुक्राणु के कारण बच्चे पैदा होते हैं तब तक लड़की के पेट से पैदा होने वाले लड़कों के कारण लड़कियों को डायन तक कहा जाता था और यह पूरी तरह से यूरोपीय व्यवस्था थी जिससे यह स्पष्ट है कि अज्ञानता ने महिला को सिर्फ एक पशु वध जीवन जीने के लिए मजबूर किया और उसे मानव या पुरुष के समकक्ष लाने में बहुत बड़ी लड़ाई उसे लड़नी पड़ी है यदि निष्पक्ष होकर कोई भी व्यक्ति अपने दिल में यह महसूस करें कि वह लड़की के लिए क्या सोचता है और उसका विमर्श हुआ स्वयं करें तो समाज स्वयं ही स्वच्छ दिखाई देने लगेगा इस बात को हम सभी बड़े खुशी से स्वीकार करते हैं कि घर में प्रबंधन में महिला का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता है लेकिन समाज में हम उसके इसी प्रबंधन कौशल को स्वीकार करने में हिचकते हैं और इस तरह दूरी मानसिकता के कारण महिला को समाज में बाहर निकलने पर परेशानी का अनुभव होता है जब वह घर के प्रबंधन में रसोई में बच्चों को पालने में पति के नियमित जीवन को सुचारू रूप से चलाने में पारंगत है तो महिला निश्चित रूप से समाज को भी चला सकती है एक बहन जिसे इस बात का ख्याल रहता है कि उसके भाई ने खाना खाया है या नहीं एक बेटी जो अपने पिता के खाने कपड़े का ख्याल रखती है इतना ख्याल एक बेटा या पुत्र अपने बहन और पिता का नहीं रखता है लेकिन हम इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं ऐसे में इतनी संवेदनशील बालिका जब समाज में जिम्मेदारियों को संभाल लेगी तो निश्चित रूप से वह समाज के उन पहलुओं में भी अपने सर्वोच्च का कोई स्थापित करेगी जो उसके अंदर प्राकृतिक रूप से हैं लेकिन समाज खासतौर से पुरुष शासित समाज द्वारा इस तथ्य को स्वीकार न करने के कारण महिला को समाज में ज्यादातर समय अपने को साबित करने अपने को सुरक्षित रखने में ही निकल जाता है और वह एक डर के जीवन के कारण अपनी योग्यता का प्रदर्शन नहीं कर पाती है अंतरिक्ष से लेकर जेट फाइटर तक प्रशासनिक सेवा से लेकर घर की रसोई तक कहीं पर भी पुरुष का सामना करने सेवा हिचकी नहीं है तो फिर आने वाली पीढ़ी को इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि उसे भी बालिकाओं को अवसर देना चाहिए यदि वह घर के दरवाजे से बाहर निकली एक बालिका के साथ सही व्यवहार नहीं करेंगे तो स्वयं उनकी बहन के साथ भी कोई पुरुष अच्छा व्यवहार नहीं कर रहा होगा और निश्चित रूप से कोई व्यक्ति ऐसा समाज नहीं चाहता है कि उसकी मां और बहन के लिए कोई भी व्यक्ति विपरीत परिस्थिति पैदा करें लेकिन यह तभी संभव है जब हम स्वयं में एक अच्छी स्थिति में महिला को बालिका को रहने में सहयोग करें और इसी मनोविज्ञान को जिस दिन समाज में देश में समझा जाने लगेगा बालिका दिवस अपने महत्तम स्थिति को प्राप्त कर लेगा और बालिका अपने मानवाधिकार के साथ अपने शोषण के विरुद्ध गरिमा को जीवन की ओर अग्रसर हो जाएगी डॉ आलोक चांटिया लेखक विगत दो दशकों से मानवाधिकार विषयों पर लेखन कार्य कर रहे हैं और जागरूकता के लिए अखिल भारतीय अधिकार संगठन के साथ जुड़े हुए हैं
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