Saturday, November 30, 2019

आँख मिचौली का खेल चल रहा........

आँख मिचौली का खेल चल रहा न जाने कब से .........................कभी रात तो कभी दिन के होते हम तब से .......................पर नींद में लाती ररत सपनो का जीवन ......................... और मिला देता है पूरब हकीकत को सब से ............................कितना सुंदर है खेल देख लो प्रकृति का .....................कुम्हार के चाक सी प्रयास आकृति का .............तुम और कौन नही हिस्सा इसकी संस्कृति का ....................सूरज में आलोक है आया परिणाम इसी की कृति का ......................इतनी अद्भुत प्रकृति के खेल को अगर हम नही समझ रहे है तो फिर क्यों और किस अर्थ में हम मनुष्य है

जीवन का स्वर चुप हो रहा है

जीवन का स्वर चुप हो रहा है ...............देखिये अब सारा शहर सो रहा है .................सर्द है रातें खुद जिन्दगी की तलाश में ..................कोई मेरा अपना सपनो में खो रहा है .................. ये कैसी आरजू है ऋतु से तुम्हारी .................कोई क्यों सन्नाटे में फिर रो रहा है .....................आलोक जब जरूरत रात में भी तुमको ....................क्यों रिश्ता तेरा पूरब से दूर हो रहा है ...................पहले हम सब को जानना चाहिए कि हम वास्तव में क्या चाहते है ............फिर चाहे रात हो या दिन .........

Saturday, November 23, 2019

खुद को गिरा कर मुझे गिरा दिया उसने

खुद को गिरा कर मुझे गिरा दिया उसने ......... न जाने मैखाने में क्या आकर पाया उसने ....................सुना है अब उसके आंसू घुंघरू बन बजते है ........................ उजाला नही अँधेरे को बनाया आशियाना उसने ..............मुझे बर्बाद करने में खुद बर्बाद होते रहे .................खुद की जिन्दगी से वो बेजार होते रहे .............आलोक को क्या कोई पकड़ पाया मुठ्ठी में ................अँधेरे ही अक्सर उनके दामन में सोते रहे ......................क्यों चाहते है की हम एक दूसरे को गिरा कर आगे बढे पर ऐसे करके बढ़ने वाले कभी खुद भी हस नही पाते..................

Friday, November 22, 2019

कितनी दफ़ा दफ़ा हो जाऊं आलोक

कितनी  दफ़ा दफ़ा हो जाऊं  आलोक
मोहब्बत है हुजूर कैसे  फना हो जाऊं

मेरे आंसू का कोई मोल नही

मेरे आंसू का कोई मोल नही अब क्या दुनिया मे,
जंगल को शहर बनाया क्यो आकर मेरी दुनिया मे l
आलोक चांटिया

क्यों जिन्दगी का फरेब

क्यो ज़िन्दगी मे सांसो से मोहब्बत का फरेब चला
चाहा मौत को तो फिर इस बेवाफाई से क्या मिला
आलोक चांटिया
 

ज़िन्दगी गंगा सी मैली हो गयी

ज़िन्दगी गंगा सी मैली हो गयी
समुन्दर मे लो फिर खो ही गयी
हर किसी ने चाहा खुद उसको
गंगा सी ज़िन्दगी तन्हा हो गयी
आलोक चांटिया

Sunday, November 17, 2019

वह दूर तिमिर में चमका तो

वह  दूर तिमिर में चमका तो,
उस को सूरज भी कह डाला ,
मैं कितना जल कर चमका हूँ ,
क्या ये दर्द कभी तुमने पाला |@
 आलोक

आज उसकी आँखों में ह्या का जनाजा देखा

आज उसकी आँखों में ह्या का जनाजा देखा .
कुछ रोई आँखे मेरी और तमाशा सबने देखा .
बोले सब जब खो दिया तो दर्द फिर कैसा .
मैंने कहा खोयी है वो मैंने तो जीकर देखा .
आलोक चांटिया

मेरा मन कही लगता नहीं

मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं ,
चुप चाप सब हैं जी रहे ,
सच का बाजार चलता नहीं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं .......1
मैं चाह कर भी हार हूँ ,
जीवन नहीं करार हूँ ,
आलोक मार्ग दर्शक नहीं ,
अंधेरों का मैं प्यार हूँ ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं ..........२
रोटी पाने की बस होड़ हैं ,
भ्रष्टाचार क्यों बेजोड़ हैं ,
ये भाई बहनों के देश में ,
सहमा क्यों हर मोड़ हैं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं .........३
घर ही नहीं देश टूट रहा है ,
विश्वास,भी अब छूट रहा है,
मारना है जब सच जानते हो ,
मन फिर क्यों घुट रहा हैं ,
मेरा मन कही लगता नहीं ,
ये वतन क्यों जगता नहीं ............४
जीवन में जब हम सिर्फ रोटी तक रह जाते है तो देश , समाज, और घर सब टूट जाते है ......अखिल भारतीय अधिकार संगठन

वो कहती हैं मोह्हबत करने का मोल दो

वो कहती हैं मोह्हबत करने का मोल दो .
मुझे मेरी आरजू में आज तोल दो .
मै नही प्यासी घुंघरू की आवाज़ तुम सुनो .
आज सरे आम अपने दिल के राज खोल दो .
मैंने यही सीखा हर बात पर अपनी बोली सुनना .
आज तो अपनी मोह्हबत की बोली बोल दो .
बस इतने के खातिर मैं न जाने कहा से गुजरी .
अब एक आसरे की बाँहों का माहौल दो .
आलोक चांटिया

मैं लाया हूँ अपना जीवन

मैं लाया हूँ अपना जीवन ,
तुम भी हिस्सा अपना ले लो ,
मुझको जीना है अपने खातिर ,
तुम भी अपने सपने बुन लो ,---------१
उबड़ खाबड़ सांसो के पथ है ,
तुम भी अपना गाना गुन लो ,
पीर बहुत है अंतस में मेरे ,
प्रेम के गीत तुम अपने सुन लो ------२

आलोक चांटिया

जिन्दगी में कोई भी पल नही मिलता दोबारा

जिन्दगी में कोई भी पल नही मिलता दोबारा
ये मौत का सितम और उसका चौबारा ..
कितनी बार कहा हस कर कट लो चार पल .
फिर भी न समझे नही लौटता ये कल ..
आज राग  रागिनी गयी जा रही तेरी .
साँसों को खेल है क्यों मुझसे न मिली मेरी
आलोक चांटिया

मैं आलोक हूँ क्योकि मुझे

मैं आलोक हूँ क्योकि मुझे,
अँधेरे को समेटने का हुनर है,
तुम भी अपने हिस्से का दे दो
मुझे उसे अपनाने का जिगर है

अकेला नही मैं सहारे बहुत है

अकेला नही मैं सहारे बहुत है ,
तुम अपना भी सर धर लो ,
मरा समझ कंधे चार मिलते हैं ,
जिन्दा से तुम तौबा अब कर लो ,-------१
आलोक ढूंढने सब हैं आये ,
अंधेरों में भी बसेरा कर लो ,
डूबता को तिनके का सहारा ,
कुछ कदम साथ तुम चल लो -----------२
हम सब लाभ हानि के नज़र से हर रिश्ते को देखते है जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए
आलोक चांटिया

Tuesday, November 12, 2019

निपट अकेला दीपक सा मैं

निपट अकेला दीपक सा मैं ,
घर घर भटका करता हूँ ,
लोगो को रोशन करके मैं ,
तमस समेटा करता हूँ ,
लगता मुझको ख़ुशी दे रहा ,
पल पल घटता रहता हूँ ,
सूरज के आगे विवश खड़ा ,
पूरा दिन मैं मरता हूँ ..............दीपक की गति इतनी सरल नही हैं , वो हमारे लिए जी कर खुद को बर्बाद कर लेता हैं .....शायद इसी लिए कोई किसी के लिए या समज के लिए जीना कम पसंद करता है ......क्या आपको दीपक वास्तव में पसंद हैं

Monday, November 11, 2019

जिन्दगी आज बेकार सी लगने लगी है

जिन्दगी आज बेकार सी लगने लगी है ,
बाज़ार में बोली बेहिसाब लगने लगी है ,
कितनी बार बदल कर देखूं मैं तुझको ,
हर जिन्दगी में वही फिर दिखने लगी है ,
लोग कहते है आलोक होकर अँधेरे में ,
किसको बताऊँ आंखे छलकने लगी है ,
जन कर भी अन्जान नही मैं हुआ हूँ ,
अन्जाने में मौत अच्छी लगने लगी है ,
कोई नही जो ऋतु से यहाँ बच पाया हो ,
मेहँदी से सरुर में खुद न रच आया हो ,
उसका तो काम था आना और चले जाना,
दीवाली में दीपक सी आज लगने लगी है ..

Saturday, November 9, 2019

मैं गुलाम नहीं वो , जान रहे है ,

मैं गुलाम नहीं वो ,
जान रहे है ,
वो जी नहीं रहे ये ,
मान रहे है ,
कितने वक्त के लिए ,
आये यहाँ जानते नहीं ,
किसी के लिए जी ले ,
वो ऐसा मानते नहीं ,
आलोक की चाहत में ,
भटकते है सब दर बदर,
देख कर मुझे क्यों फिर ,
भागते यहाँ इस कदर ............ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Friday, November 8, 2019

दुनिया में राह कोई नहीं

दुनिया में मैं रास्ता नित ढूंढू
रास्ता दुनिया में है कोई नहीं
जिधर चल पड़ो पग से अपने
फिर दूर लक्ष्य है कोई नहीं
आलोक चांटिया
दुनिया में मैं रास्ता नित ढूंढू
रास्ता दुनिया में है कोई नहीं
जिधर चल पड़ो पग से अपने
फिर दूर लक्ष्य है को
दुनिया में मैं रास्ता नित ढूंढू
रास्ता दुनिया में है कोई नहीं
जिधर चल पड़ो पग से अपने
फिर दूर लक्ष्य है कोई नहीं
आलोक चांटिया
ई नहीं
आलोक चांटिया

कभी कभी वो मेरे करीब चली आती है


हरी हरी घास पर जिन्दगी इंतज़ार में

हरी हरी घास पर जिन्दगी इंतज़ार में ,
सुबह से ही न जाने किस इकरार में ,
सरपट दौड़ती मेरी सांसो का चलना ,
उसकी आंखे न जाने किस तकरार में ,
शायद मौत से मेरी अब तक उबरी नही ,
छूकर देखती मेरी परछाई कही तो नही ,
राख में कोई भी गर्मी अगर ढूंढ़ लेती ,
कुछ देर मर कर मेरे साथ चली तो नही ,
न जाने क्यों घूमती मेरे इर्द गिर्द आज ,
क्या अब तक जी रही मेरा कोई राज ,
उसकी धड़कने क्यों बज रही बन साज,
आलोक सा अँधेरा मिला मिटा के लाज ,
ऋतु की तरह बदल लो तुम भी खुद को ,
आज गर्म हवा हो कल बनाओ सर्द खुद को ,
लोग मिल जायेंगे काटने को समय अपना ,
मौत में सिमटी जिंदगी समझ लो खुद को ........................



जो हो रहा हैं उस पर दुःख किस लिए ....जो हो रहा हैं वो गर होना ही था तो उसको समय का सत्य मान कर बस जीते जाओ .और आज जिस ऋतु से आनंद लिया हैं .कल् किसी  और के हो जाओ ......................प्रकृति खुद आपको बेवफा होना सिखाती है .जिस गीता कर्म योग कहती है ....तो दुःख में ही सुख देखिये और मेरे साथ कहिये

क्यों अपना दर्द सुनाना चाहते हो

क्यों अपना दर्द सुनाना चाहते हो ........
जब कि किसी को दर्द देकर ही आते हो....
ये भी जब सिद्ध हो चुका है कि,
कोई भी अपनी मूल प्रवृत्ति नही ,
छोड़ पाता उम्र भर हर मोड़ पर ,
फिर क्यों उम्मीद करूँ तुमसे ,
बिना कांटो की जिंदगी रहने दोगे,
गुलाब दामन में खिलने दोगे ......................

Tuesday, November 5, 2019

Monday, November 4, 2019

किसी को जिन्दगी मिल जाती है कौड़ियो के मोल

किसी को जिन्दगी मिल जाती है कौड़ियो के मोल ,
अक्सर वो मेरी उसकी बेबसी का करते दिखते तोल,
नही जानते है कि पानी तो फैला पड़ा हर कही यहा,
मीठे पानी के सोते मिलते है जमीं को लेते जो खोल ,
गीली मिटटी में तो हर कोई उगा लेता है रोटी अपनी ,
रेत पर दिखाओ घर बसा कर और फिर कुछ मीठे बोल ,
आसमान से पानी की आरजू कौन करती है नही आँखे ,
अपने पसीने से दाना उगा कर सच की खोल दो पोल ..............क्या आपको भी जवान ऐसे ही मिल गया है कि आपको लगता है कि जो गरीब है या जिनके पास कुछ नही है वो उनके पूर्व जन्मो का पाप है या फिर आप बचना चाहते है उस जानवर की तरह जो अपने सिवा किसी के लिए नही करता ..................आदमी कहा है

Sunday, November 3, 2019

लेखनी और शब्द

जिन्दगी जीने का प्रयास करता हूँ ......... 
लेखनी से प्यार किया करता हूँ ....
कभी कभी लिपट जाती उँगलियों से .......... 
तभी  शब्दों में नहा लिया करता हूँ ........ 
आलोक चान्टिया

जिन्दगी सभी को मिलती है नुक्कड़ पर

जिन्दगी सभी को मिलती है नुक्कड़ पर
जिन्दगी पहुच जाती है खुद नुक्कड़ पर ,
कितना भी जतन कर लो नसमझपाओगे
मौत भी खड़ी मिलती है हर नुक्कड़ पर ,
जीवन में दिल की आहट आतीनुक्कड़पर
जब वो सामने से गुजर जाती नुक्कड़पर
कितना ही वक्त गुजर जाता नुक्कड़ पर
शायद वो मुड़ कर देख ले नुक्कड़ पर ,
पता नही क्यों सन्नाटा सा है नुक्कड़पर
कुछ गम सुम सा लगता है अब नुक्कड़पर ,
लोगो ने बताया वो मासूम अब न आयगी ,
कल कोई उठा ले गया उसे नुक्कड़ पर ,
रोज ढूंढ़ता उसके निशान नुक्कड़ पर ,
उसकी हसी दौड़ती मिली नुक्कड़ पर ,
एक प्रश्न सा तैरता हवाओ में आज भी ,
क्यों लड़की मौत ही जीती है नुक्कड़ पर
मैं क्या बताऊ उलझन इस नुक्कड़ पर ,
बस एक अक्स रह गया इस नुक्कड़ पर
वो भी थी रोई बहुत इसी नुक्कड़ पर ,
परायी हुई थी मुझसे इसी नुक्कड़ पर ,
कहा छोड़ पाया था उसे नुक्कड़ पर ,
मौत के संग हो लिया था नुक्कड़ पर ,
प्रेम तो दिखाया जिन्दगी से नुक्कड़ पर
फिर दुनिया से मुंह मोड़ लियानुक्कड़पर
क्या तुम जानते हो उस पार नुक्कड़ के ,
क्यों एक शून्य सा रह जाता नुक्कड़ पर
लोग कहते है भगवान वहा नुक्कड़ पर,
फिर रोने की आवाज क्यों नुक्कड़ पर ............................



 आलोक चान्टिया

जिन्दगी में हम सब नुक्कड़ के पर न देख पाए है और न देख पाएंगे ........इसी लिए नुक्कड़ पर मौत , लड़की से छेड़ छाड़ , बलात्कार , अपहरण और फिर एक सन्नाटा नुक्कड़ पर मिलता है .........क्या आप ने नुक्कड़ को ध्यान से देखा है

जिन्दगी से मोहब्बत कौन कर पाया है

आज कली बहुत थी रोई ,
अपने में थी बस खोई खोई ,
नही चाहती थी वो खिलना ,
दुनिया से कल फिर मिलना ,
कोई हाथ बढ़ा तोड़ लेगा ,
डाली का भ्रम सब तोड़ लेगा ,
वो बेबस रोएगी जाने कितना ,
पर दर्द कौन समझेगा इतना ,
जिस डाली पर भरोसा किया ,
वही ने आज भरोसा लिया ,
खुद खामोश रही बढे हाथो पर ,
बिस्तर पर सजने दिया रातो पर ,
मसल कर छोड़ दिया नरम समझ ,
फूल तक न बनने दिया नासमझ ,
कली के जीवन में अलि नही है ,
ऐसे पराग को पीना सही नही है,
ये कैसी पहचान मिली उसको आज ,
गुलाब की कली छिपाए क्या है राज,
अपनी ख़ुशी से बेहतर कब कौन माने,
जीने की आरजू उसमे भी कब जाने ,
जीवन का ये कैसा खेल चल रहा ,
हर डाल का फूल क्यों विकल रहा ,
क्यों नही पा रहे फूल का पूरा जीवन ,
क्यों नही कली का कोई संजीवन .....................


आइये हम सब समझे कि जिस तरह लड़की को हम सिर्फ जैविक समझ कर जी रहे हैं ................क्या उनको भी कली की तरह पूरा जीने का हक़ नही है ...
..............गुलाबी ठंडक सभी को मुबारक ..

Saturday, November 2, 2019

आज फिर चाँद में सुरूर है

आज फिर चाँद में सुरूर है ,
लगता है कोई बात जरुर है ,
मांग के सिंदूर में चमकती ,
उन की जिन्दगी का गुरुर है ,
आज भी भूखी प्यासी रही ,
पर कल से कुछ मगरूर है ,
पर आज तो प्रियतम की है ,
जिन्दगी जो उसका नूर है ,
करवा का कारवां चला है ,
एक दिल में दो ही पला है ,
उनकी निशानी ऊँगली में है ,
परदेश में जाना उनका खला है ,
पर क्या हुआ उनका अक्स है ,
दिल के दरवाजो में एक नक्स है ,
चाँद को देख फिर निहारा उनको ,
पति से प्यारा क्या कोई शख्स है ,
आसमान के आगोश में चाँद आज है ,
तेरी पलकों में कोई फिर मेरा राज है ,
रात न गुजरेगी आज तनहा तनहा
शहनाई की वो रात आज पास पास है ...........


 आलोक चान्टिया
जिस देश में इतने खुबसूरत एहसास हो पति पत्नी के लिए , अगर वह से किसी भी विवाहित महिला की सिसकी सुनाई दे तो क्या उसे चाँद में डूबी रात की ओस की तरह अनदेखा करके बस अपने में जीते रहे है या फिर महिला की करवा यात्रा के भाव को समझ कर उसे पुरे जीवन हँसाने का यत्न करे ........................आप सभी को करवा चौथ के असली अर्थ की बधाई

रावण की लंका में

रावण की लंका में ,
रहकर क्या सपने ,
मैंने गलत चुने ,
राम राज्य की ,
कर कल्पना पथ ,
क्या सही नहीं बुने,
कब तक चलेगा दमन ,
अशोक वाटिका में ,
सीता घुट घुट कर जियेगी ,
जगह मिलेगी धरा में ,
उठाया है तो धनुष ,
अंत रावण का करना है ,
गरिमा से जीना है मुझको,
अब उसको ही मरना है ,...................
महिला में तो इतना दम नहीं है की वो अपने विरुद्ध होने वाले शोषण के खिलाफ बोल पाये

Friday, November 1, 2019

जिन्दगी मैंने कब क्या कहा तुझसे

जिन्दगी मैंने कब क्या कहा तुझसे ,
जो भी मिला क्या तूने पूछा मुझसे ,
बस चलता ही रहा एक नदी की तरह ,
अंत में खारा पानी ही मिला उस से ,
जब चला तो हीरे सी उमंग लेकर था ,
ये किस दौर ने मैला बनाया मुझको ,
अपने दामन से ज्यादा सबका देखा ,
कितने पाप से बचाया मैंने तुझको ,
कोई है जो आज बढ़ कर पकड़ ले ,
अपनी बाहों में बस थोडा जकड ले ,
शायद बहना ही मेरी जिन्दगी रही ,
मेरी मिठास पर भी थोडा अकड ले ,
शायद ये दौर ही है आदमी का यहा,
किस के सामने दुःख ले बैठी मैं यहा,
यहा तो प्यास बुझाने की होड़ लगी है ,
आँचल को मैं खुद मैला कर बैठी यहा ......................


क्या नदी क्या जमीं सब के दर्द को हमने अपने जीने का साधन बनाया है शायद इनकी गलती यह है कि इन्होने औरत का अक्स लेकर जीना चाहा....................क्या मेरी बात सही नही लग रही है ....................

शर्म नहीं आती है

एक पूँछ उठाये ,
कुत्ते को देख ,
मैंने लाल पीले ,
होते हुए कहा ,
क्या तुम्हे शर्म ,
नही आती है ,
कुत्ते ने बड़े ही ,
शालीनता से ,
कहा कि आदमी ,
के साथ रहने ,
वाले के पास शर्म ,
रह कहा जाती है .............. आलोक चांटिया