Friday, October 3, 2025

चींटी का दर्शन डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"


 एक चींटी लड़ती है मरती है, 

कटती है पर झुकती नहीं है। 

उसे जीवन जीने का,

अर्थ मालूम हो गया है।

कर्म ही सब कुछ है,

यही उसके साथ रह गया है।

निकल पड़ती है घर से, 

बिना कुचल जाने के डर से। 

जानती भी है कि हो सकता है,

कि शाम को घर भी ना लौट पाऊं ?

पर इस डर से कभी नहीं कहती,

कि मैं घर से बाहर क्यों जाऊं?

मनुष्य के पैर से कुचल जाने,

चीनी गुड़ और शहद में मिल जाने,

उसके लालच में कुछ ही पलों में,

मर जाने बंद धब्बों के अंधेरों में,

आजीवन कारावास की तरह ,

खत्म हो जाने का आभास भी,

उसे कहां डरा पाता है ?

वह जानती है कि उसके मृत्यु के बाद,

उसके हिस्से में ना किसी का,

दर्द आता है संवेदना आती है,

ना ही कोई उसके पास,

दुख जताने भी आता है, 

बस डिब्बे से निकालकर,

 उसके मृत्यु शरीर को ,

फेंक दिया जाता है ।

इतना अपमानित जीवन पाकर भी,

भला चींटी को कौन डरा पाता है ?

उसके हिस्से में नियत का वह,

अदम्य साहस आता है।

जिसमें मानव की संस्कृति में ,

अनगिनत असंख्य चीटियां का,

बलिदान चलता चला जाता है ।

मजबूर हो जाता है मनुष्य भी,

एक दिन इस चींटी के साथ चलने को,

अपने घर के सामानों में, 

उसके साथ रहने को। 

अनवरत चींटी का यह प्रयास उसे,

मानव के जीवन में शामिल कर देता है ।

और फिर एक दिन चींटी का संसार,

अपनी तरह का जीवन सुख स्वाद,

सब मनुष्य से ही लेता है।

 क्योंकि चींटी यह जान जाती है,

कि बिना कर्म के,

बिना त्याग के बलिदान के,

 बिना मौत के स्वागत के, 

सांसों के पथ पर मुक्ति नहीं आती है।

इसीलिए कुछ न होकर भी, 

अस्तित्व हीन की तरह रहकर भी,

एक चींटी अपनी तरह से, 

पूरा जीवन की जाती है।

और मानव के सामने खड़े होकर,

उसे यह समझा जाती है ,

कि जीवन का मूल्य ,

सिर्फ अकर्मण्य होकर बैठ जाना नहीं है।

हर दुख दर्द को सहते हुए,

 सिर्फ सुख पाना नहीं है।

कर्म को करते हुए मिट जाना ही ,

जीवन का अंतिम सार है।

 किसी भी प्राणी का यही अंतिम,

चेतना और आलोक प्रसार है।

आलोक चांटिया "रजनीश"


No comments:

Post a Comment