Friday, October 31, 2025

मेरी कविता मेरी समीक्षा डॉ आलोक चांटिया रजनीश

 

मुझको क्यों बनाया तुमने

कविता की समीक्षा

मेरे दर्द को क्यों उकेरा तुमने ,
क्यों अपने को दिखाया तुमने ,
कोई ख़ुशी मिली दरिया से तुम्हे ,
क्यों आँखों से आंसू बहाया तुमने ,
जमीं को दर्द देते देते आज क्यों ,
मुझे ही अपनी बातो से खोद गए ,
क्या कोई गुलाब खिलेगा कभी ,
कौन कलम आज बो गए मुझमे ,
एक बीज सा जीवन था मेरा ,
जो गिर कर भी कोपल देता है ,
क्यों पैरो से कुचल डाला तुमने ,
बस कुछ मिटटी ही तो लेता है ,
आज जान मिला जान का अर्थ ,
जब तुमने किया मुझसे अनर्थ ,
कोई बात नही स्याह में आलोक ,
अपने को उजाला बनाया तुमने ,
कह भी तो नही सकते धरती हूँ ,
हर सृजन को मैं भी करती हूँ ,
क्योकि मैं दुनिया में रहती हूँ ,
ये कैसा मुझको बनाया तुमने ,
माँ होकर भी आज कुचल गई है ,
मेरी ममता कही चली गयी है ,
किसी ने बताया है नाले के किनारे ,
माली ऐसा बीज क्यों लगाया तुमने ,
बंजर कहलाती मगर अपनी होती ,
जीती मगर अपने सपने में होती ,
अब तो जिन्दा लाश हूँ पानी में ,
मुझे साँसों बिन क्यों बनाया तुमने ।
डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"

.आज न जाने कितने युवा सिर्फ इस लिए लडकियों का शोषण करते है क्योकि यह एक प्रतिस्पर्धात्मक खेल हो गया है .....पर वो लड़की भी इस ख़ुशी में कि कोई तो उसको पसंद करता है .....अपना सब कुछ समर्पित करती है ...पर परिणाम गर्भपात के बढ़ते बाज़ार और लड़कियों में बढती कुंठा जिसमे उनको विकास होने के बजाये एक डर का जन्म ज्यादा हो रहा है .....................
शायद आपको यह सिर्फ एक फर्जी बात लगे पर पाने को अंदर टटोल कर इसको पढ़िए और फिर?

इसकी समीक्षा एक शब्दार्थ उत्पन्न करती है

🌾 जब प्रेम खेल बन गया: स्त्री, समाज और सभ्यता का क्षरण

प्रस्तावना

कविता हमेशा समाज का आईना होती है। पर कभी-कभी यह आईना खून से लिखा जाता है। “मुझे साँसों बिन क्यों बनाया तुमने” — यह सवाल सिर्फ एक स्त्री का नहीं, बल्कि पूरी धरती का है, जो अपने ही बच्चों के हाथों कुचली जा रही है।

आज के युवा वर्ग में प्रेम, संवेदना और संबंध जैसे शब्द अक्सर प्रतिस्पर्धा, दिखावा, और वर्चस्व में बदल गए हैं। प्रेम एक भावना नहीं, बल्कि एक खेल बन गया है — जिसमें कोई जीतता नहीं, दोनों हारते हैं — एक अपनी अस्मिता से और दूसरा अपने मानवत्व से।

मानवशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य: जब संबंधों का बाज़ार बन गया

मानव सभ्यता में प्रेम हमेशा से सृजन का प्रतीक रहा है। किंतु आधुनिक उपभोक्तावादी समाज में प्रेम का स्वरूप बदल गया है।

अब यह ‘स्वामित्व’ और ‘प्रदर्शन’ का साधन बन गया है।

युवाओं में “कितने रिश्ते” और “कितनी जीत” जैसी मानसिकता ने संबंधों को प्रतियोगिता में बदल दिया है।

डिजिटल माध्यमों ने इस प्रवृत्ति को और गहराई दी है — जहाँ आकर्षण क्षणिक है, पर उसका असर जीवनपर्यंत।

इस सामाजिक विकृति ने स्त्रियों को एक “उपभोग्य वस्तु” के रूप में प्रस्तुत किया है, न कि एक सृजनकर्ता, संवेदना-स्रोत या व्यक्तित्व के रूप में।

स्त्री का दर्द: धरती के समान मौन पीड़ा

कविता में “माँ होकर भी आज कुचल गई है” — यह पंक्ति हर उस स्त्री का प्रतीक है जो समाज की क्रूरताओं के नीचे दबकर भी मुस्कुराती है।
वह धरती की तरह है —
जिसे बार-बार खोदा जाता है,
पर वह हर बार कोपल देती है।

किन्तु जब यह धरती भी मौन हो जाए — तो समझिए कि सभ्यता अपने अंतिम चरण में है।

मनोवैज्ञानिक विश्लेषण: झूठी स्वीकृति की भूख

कई बार शोषण के पीछे सिर्फ वासना नहीं, बल्कि स्वीकृति की भूख होती है। युवाओं के भीतर प्रेम नहीं, बल्कि “मान्यता पाने” की लालसा पल रही है।
लड़कियाँ यह सोचती हैं कि “कोई तो है जो मुझे पसंद करता है”, और इस भ्रम में वे खुद को समर्पित कर देती हैं —
जबकि लड़के इस “जीत” को अपनी पुरुषत्व की ट्रॉफी मान लेते हैं।

परिणाम —

गर्भपात के बढ़ते मामले,

मानसिक अवसाद,

आत्म-सम्मान की गिरावट,

और सबसे भयावह — संवेदनशीलता का क्षय।

नैतिक और सांस्कृतिक पुनर्विचार की आवश्यकता

भारतीय संस्कृति में स्त्री को “शक्ति” कहा गया है — न कि “संपत्ति”।
जब समाज इस मूल दर्शन को भूल जाता है, तब विकास नहीं, विनाश शुरू होता है।

हमें यह स्वीकार करना होगा कि “आधुनिकता” का अर्थ चरित्रहीन स्वतंत्रता नहीं है।
यदि हम सच्चे अर्थों में आधुनिक बनना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें संवेदना और मर्यादा को पुनर्स्थापित करना होगा।

निष्कर्ष: धरती और स्त्री — दोनों को सांस लेने दो

डॉ. आलोक चांटिया “रजनीश” की यह कविता एक चेतावनी है
धरती की बेटी बोल रही है, पर हम सुन नहीं रहे।
वह कहती है —

“अब तो जिन्दा लाश हूँ पानी में,
मुझे साँसों बिन क्यों बनाया तुमने।”

अगर समाज इस पुकार को नहीं सुनता, तो अगली पीढ़ियाँ सिर्फ तकनीकी रूप से जीवित होंगी —
भावनात्मक रूप से नहीं।

No comments:

Post a Comment