जो हर दिन खत्म हो रहा है,
इस संसार में वह और,
कुछ भी नहीं जीवन है ।
हम चाह कर भी जिसे ,
रोक नहीं सकते इस संसार में ,
वह कुछ भी नहीं जीवन है।
सिर्फ और सिर्फ एक ही,
रास्ता शेष है उसे रोक पाने का,
इस संसार में वह कर्म है।
जो हर पल है निभाना ,
बस यही मानव का धर्म है।
छोड़कर जो भी जाएगा,
अपने पीछे एक विचार,
आने वाली पीढ़ियां के लिए।
वही तो रोशनी देंगे समय के साथ,
बनाकर एक दिए।
इसीलिए मुट्ठी में हम बांध कर,
क्या ले आये यह
समझना जरूरी नहीं है।
मुट्ठी में हमने कर्म की जो रेखाएं,
खींच रखी है उन्हें कितना इस धरा पर,
खींचा है यह जरूरी है।
आओ मिलकर एक बार,
यह जतन कर ले अपने कर्म को,
निभाते हुए इस नश्वर जीवन को,
कर्म के धर्म को।
मरे क्यों हम चार दिवारी परिवार तक ही,
याद रखने की जुगत में,
फंसे रहते हैं ?
क्यों नहीं हम पूरी दुनिया के हैं,
यह हर पल कहते हैं!
इसीलिए धरा पुत्र बनकर,
जीने का प्रयास कर डालो।
और नश्वर शरीर को अपने कर्मों से,
यहां अमर कर डालो।
आलोक चांटिया "रजनीश"

No comments:
Post a Comment