Saturday, October 25, 2025

जीवन पथ पर पिता डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"

घर की दहलीज से निकलते हुए पैर,
तब अचानक ही रुक जाते हैं ।
जब वह कानों में ,
एक ऐसी आवाज पाते हैं।
जो कह रहा होता है,
क्या तुम्हारा जाना जरूरी है?
मुझे लगता है मेरी तबीयत,
कुछ खराब चल रही है, 

शरीर की सारी ऊर्जा ,
कुछ अजीब सी निकल रही है।
वहां लखनऊ में तुम्हारा,
ऐसा क्या काम है?
जो तुम्हारा जाना जरूरी है, 

जाते हुए पैर थम से जरूर जाते हैं।
पर वह कहां यह समझा पाते हैं ?
कि दो रोटी की तलाश,
हर पेट को रहती है।
सम्मान की बात,
हर आंख हर पाले रहती है।
हाथ फैला कर तो,
भीख भी मिल जाती है,
इस दुनिया में ।
पर पसीने की रोटी,
बड़ी मुश्किल से मिलती है। 

इसीलिए घर की दहलीज, 

छोड़ना जरूरी हो जाता है। 

वरना कोई अपनों को ,
कहां आसानी से छोड़ पाता है ?
लेकिन यह बात पिता को,
समझा पाना कोई आसान बात तो नहीं है?
क्योंकि आज मेरी मां इस दुनिया में ,
नश्वर शरीर से नहीं है ,
जो मुझे उंगली पकड़ कर,
यह समझा गई थी ।
और मेरे आश्वसन पर,
चुपचाप अपना उत्तर पा गई थी ।
कि किसी भी परिस्थिति में, 

आपके बाबू को मैं ,
छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा।
जब भी वह आवाज देंगे ,
मैं बार-बार लौट कर आऊंगा।
भले ही कितने जीवन के, 

रिश्ते बिखर जाए टूट जाए।
मेरे हाथों से ही मेरे,
कल के सपने निकल जाए,
फिर भी मैं आपको,
निराश नहीं करूंगा।
मां मैं आपके बाबू के साथ,
हर पल रहूंगा ।
और फिर मैं दहलीज से निकले हुए,
पैर को वापस ले आता हूं।
मुस्कुराते हुए अपने पिता की ओर,
यह कह भी जाता हूं ,
नहीं ऐसा कोई जरूरी काम नहीं है,
मुझे लखनऊ में ।
आप कहते हैं तो मैं ,
यही और रह जाता हूं, बहराइच में ।
बस यह सुनते ही पिता को,

 एक अजीब सा सुकून मिल जाता है ।
और वह फिर से बेपरवाह हो जाते हैं ।
और मेरी तरफ से अपना,
ध्यान हटाकर फिर रूस यूक्रेन,
अफगानिस्तान पाकिस्तान की,
बहस में फंस जाते हैं ।
रिश्ते कई बार आपके ,
होने से ही स्थिर रह जाते हैं। 

बने रह जाते हैं ।
मंदिरों के देवता ,
जिंदा ही घर में मिल जाते हैं ।
इसीलिए अंधेरे में आलोक, 

सभी को बहुत भातें हैं। 

आलोक चांटिया रजनीश


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