Monday, October 20, 2025

दीपक का विद्रोह डॉ. आलोक चांटिया “रजनीश”

दीपक का विद्रोह

 डॉ. आलोक चांटिया “रजनीश”


अमावस की रात से लड़ने आ गया,

एक दीपक को भी आज जोश आ गया।

दुनिया का अंधेरा देखकर उसने भी,

आज खुद को ही आग लगा डाला।


पी गया अंधेरे का हाला —

सच है, चारों ओर अब था बस काला।

पर अमावस को क्या मालूम था,

किससे पाला पड़ा है आज निराला!


पूरी रात यूँ लड़ने का त्यौहार,

सिर्फ दीपक ही मना सकता है।

खुद को जलाकर दुनिया को,

उजाला बना सकता है।


मानव की संगत का यह प्रतिफल,

इससे सुंदर और क्या हो सकता है?

जिस मानव ने उसे रचा था,

आज उसी के काम वह आ सकता है।


सुबह क्या होगा — इसकी न चिंता,

ना कोई हिसाब, ना कोई सवेरा।

बस एक चिराग, अपनी लौ में डटा,

अंधियारी रात में बना सवेरा।


 

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