हर कोई बंद मुट्ठी का,
भरोसा दिला जाता है।
चुपचाप आता है ,
मुस्कुरा कर चला जाता है।
दुनिया में सब मुट्ठी,
बांधकर ही आते हैं ।
क्योंकि भगवान के घर से हर कोई,
कुछ ना कुछ लाता है।
इसीलिए लकीरें,
खिंच जाती हैं हथेलियां पर।
क्योंकि उनके भीतर न जाने,
क्या कुछ लिखा जाता है।
बस इंतजार करना होता है,
उन लकीरों पर लिखी हुई उन ,
लाइन के अर्थ को,
जो मिटाती है जीवन के तदर्थ को।
खुश भी हो जाता है मन,
यह सोच सोच कर,
कि बंद मुट्ठी लेकर ही हर कोई आता है ।
पर मेरा तो मन ना जाने क्यों,
एक विचलन सा पाता है।
जब बंद मुट्ठी का स्वर,
उसके कानों में आता है।
क्योंकि मुट्ठी में भला उजाला,
कब कोई बांध पाया है?
मुट्ठी में तो सिर्फ,
अंधेरे का ही साया है।
इसीलिए जब कोई इस संसार में,
गर्भ के अंधकार को,
चीरता हुआ आता है,
तो उसे गर्भ के अंधेरे को भी,
मुट्ठी में लेकर चला आता है।
क्योंकि गर्भ ही सब कुछ है,
यही किलकारी में वह मान पाता है।
धीरे-धीरे जीवन की बढ़ती जटिलता में,
जब वह मुट्ठी को खोलता है,
इधर-उधर प्रकृति के साथ डोलता है।
तब जान पाता है कि,
मुट्ठी में बंद अंधेरे से,
जीवन को जिया नहीं जाता है।
कर्म के सिद्धांत पर चलते हुए,
उजाले को हाथ खोल कर लिया जाता है।
तभी जीवन का स्वर,
पूरा हो पाता है।
फिर भी इस सच से दूर हर पल ,
बंद मुट्ठी का सहारा लोग दे जाते हैं ।
सच कहूं तो अंधेरे के साथ,
जीना सीखा जाते हैं।
इसीलिए मुट्ठी को ताकत का,
सार कहा जाता है ।
खुली उंगली को,
लाचार कहा जाता है ।
पर सच तो इसका,
उल्टा ही होता है ।
जैसे-जैसे हाथ खुलता जाता है ।
अंधेरा दूर होता जाता है।
उजाला नजदीक होता जाता है ।
यही अर्थ जब भी कोई,
समझ जाता है,
उसका जीवन पूरा हो जाता है ।
आलोक चांटिया "रजनीश"

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