मेरे कमरे के ठीक बाहर,
पूरा संसार चलता रहता है।
कभी कोई गाड़ी निकलती है,
कभी कोई ठेले वाला निकलता है।
कभी कुछ हंसने की,
आवाज भी आ जाती है ।
कुछ देर को संसार की बातों से ,
जीवन की कई बातें ठहर सी जाती है ।
पर कमरे के अंदर भी तो,
एक दुनिया ही रहती है ।
जो यादों की दुनिया होती है,
बातों की दुनिया होती है,
सोचने को मजबूर करती रहती है,
कि कल जिनके साथ मैं,
जी रहा था ।
जिनको मैं अपना कह रहा था।
आज जब वह मेरे जीवन में,
कहीं नहीं रह गए हैं।
लौटने की बात भी,
फिर से नहीं कह गए हैं।
दिल दिमाग सब कुछ शायद,
उनकी छाप के साथ यही रह गए हैं ।
इसीलिए अब कोई नई तस्वीर मैं,
दिल में नहीं बना पाता हूं।
दिमाग में भी किसी के साथ,
नए जीवन की बात,
नहीं सोच पाता हूं ।
इसीलिए दो दुनिया के बीच मझधार में ,
अपने को खड़ा पाता हूं ।
कमरे की दुनिया से निकल कर,
कमरे की ठीक बाहर की,
दुनिया में कहां आ पाता हूं?
यह सोचकर,
संतोष भी करना सीख गया हूं ।
कि मेरी तरह ही मंदिरों के,
दरवाजों के भीतर जो बंद रहता है।
संसार का हर आदमी ,
जिसे भगवान कहता है।
वह भी तो एकांत में रहकर ही,
दुनिया की प्रसन्नता को ,
देने का प्रयास करता रहता है।
खुद पत्थर की मूर्ति बन जाता है ।
लेकिन मुस्कुराता रहता है।
कब वह जिंदा लोगों के बीच,
अपने भी जीवन की,
कोई बात सुनने को पाता है।
जो भी आता है बस वह उसे,
पत्थर को भगवान कहकर,
अपनी बात सुना जाता है।
एक बंद कमरे में भगवान भी ,
अपने कमरे की बाहर की दुनिया को,
कहां यह बात पाता है ,
कि जब तुमने मुझे,
मनुष्य सा ही समझ लिया है।
तो क्या कभी मुझे भी मेरे जीवन का,
थोड़ा सा हिस्सा मेरे लिए दिया है ।
बस यही सोच कर मैं कमरे में,
चुपचाप अपनी दुनिया में रह जाता हूं।
कमरे के बाहर दौड़ती भागती ,
दुनिया में मैं कुछ भी नहीं पाता हूं ।
शायद मैं भी भगवान बन जाता हूं ?
शायद मैं भी भगवान बन जाता हूं ?
आलोक चांटिया "रजनीश"

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