Saturday, December 31, 2022

नया साल मुबारक हो

 शुभकामना शुभकामना 

नए साल का ,

सब करें सामना |

दुःख में दिखे कोई ,

दर्द को कहे कोई ,

हाथ उसी का ,

तुम थामना ,

शुभकामना शुभकामना .

सन्नाटे से पथ हो , 

रात हो अँधेरी ,

चीख सुनी कोई ,

तो उसे जानना ,

शुभकामना शुभकामना 

खुशियों के पल हो ,

खुशियों के कल हो ,

जीवन ही ऐसा ,

तुम फिर बांटना,

शुभ कामना शुभकामना 

नए साल का ,

सब करें सामना ....................

अखिल भारतीय  अधिकार संगठन आप सभी को आने वाले चक्रीय समय के प्रतीक नव वर्ष के लिए शुभकामना प्रेषित करता है |.......आपका आलोक चान्टिया

Friday, December 30, 2022

बूंद की सीख

 जब भी एक बूंद निकलती है, 

भला वह क्या जाने जमीन पर, 

जाकर वह किस से मिलती है? 

फिर भी कर्म के पथ पर चलकर, 

वह नदी, पोखर, तालाब, कीचड़,

 नाली, पपीहा, सीपी जिसके भी, 

जीवन संग सिमटती है ,

उसी को अपना भाग्य मानकर, 

मनोयोग से उसके संग ,

हर पल ही लिपटती है ,

नहीं सोचती कीचड़ संग वह,

 क्या पाएगी पपीहा की चोच में,

 फस कर क्या किसी को ,

याद आएगी ,

नहीं विरह में दूर है जाती ,

अपना कर्म है करती जाती ,

सीपी को भी मोती बनाकर,

 हम सब से बस यह कहती जाती,

 मत सोचो क्यों आए हो ,

कैसे आए हो 

मिला है जीवन मानव का जब, 

कर्म के पथ पर बस,

 चलते ही जाओ ,

जिसके कारण जो अर्थ लिए हो, 

उसको हर पल जीते जाओ ,

यही अर्थ है तेरे जीवन का ,

यही अर्थ है मेरे जीवन का ,

भाग्य, प्रारब्ध की

 बात को छोड़ो बस 

कर्म के पथ पर चलते जाओ।

 चलते जाओ चलते जाओ।

 एक बूंद कब है यह ,

जान भी पाती ?

आखिर जमीन पर वह ,

किसके खातिर आती ?

आलोक चांटिया

Wednesday, December 28, 2022

पौधे सा जीवन

 पौधे से न जाने कब ,

जिंदगी दरख्त बन गयी ,

किसी के लिए यह ,

ओस की  बूंद सी रही ,

तो किसी के लिए ,

मदहोश सी मिलती  रही 

कोई आकर घोसला ,

अपना बना गया ,

कोई मिल कर ,

होसला ही बढ़ा गया ,

किसी को हंसी मिली ,

किसी की  सांस खिली ,

कोई जिया ही देखकर ,

कोई आया दिल भेद कर ,

सभी में अपने लिए ,

 तोड़ने , मोड़ने , छूने ,

छाया पाने की ललक दिखी ,

किसी ने फूल समझा ,

तो किसी ने कलम बना ,

अपनी ही कहानी लिखी ,

सभी को आलोक मिला ,

पर उसे रहा यही गिला ,

अँधेरे से सब डरते रहे ,

मौत से ही मरते रहे ,

कोई नहीं दिखा आलोक में ,

जोड़ी बनती है परलोक में ,

आलोक पूरा हुआ अँधेरे से ,

रात पूरी होगी सबेरे से ,

आइये चलते रहे दरख्त ,

बनने की इस कहानी में ,

फूल पत्ती शाखो से ,

महकते रहे जवानी में ......................अखिल भारतीय अधिकार संगठन आप सभी को जिंदगी के मायने समझते हुए एक नए कल की शुभ कामनाये प्रेषित करता है ............

Monday, December 26, 2022

बदल गए उम्र की तरह

 मैं जिसको उस मोड़ पर , 

मानो ना मानो ,

छोड़ आया हूँ ,

और कुछ भी नहीं बस ,

वो मेरा कल जिसे ,

उम्र बना लाया हूँ |

लोग कहते है अब मुझे ,

कुछ बदल से गए हो ,

आलोक इस तरह ,

क्या कहूं उनसे भी ,

कुछ भी नहीं बदला ,

सिवा इस उम्र की तरह .......... 


Alok Chantia

अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Saturday, December 24, 2022

नास्तिक हो तुम

 जब तुम अपने को

बिल्कुल अकेला कहते हो

सच मानो दुनिया में भगवान

नहीं है यह भी कहते हो 

फिर क्यों जाते हो मंदिर मस्जिद 

गिरजाघर गुरुद्वारा जब तुमको 

खुद पर अपने चारों ओर 

उसके होने का विश्वास ही नहीं है 

वही चला रहा है इस चराचर 

ब्रह्मांड को पर तुम मानते हो 

वह कहीं नहीं है 

तुम हर बार हर दिन हर पल 

अपने को अकेला कहकर 

यही बताते हो भगवान मानने का 

तुम नाटक करते रहे हो 

यही जताते हो वरना 

कण-कण में भगवान है का 

दर्शन लिए तुम  मान जाते 

रोशनी हवा और तुम्हारे 

बंद कमरों के सन्नाटे में 

वह तुम्हारे साथ ही रह रहा है 

यह भी जान जाते 

अब जब भी किसी को अपने को

 अकेला कहते हुए पाना 

तो  मान लेना मंदिर जाकर भी 

वह नास्तिक है उसने यह माना

Thursday, December 22, 2022

सूरज से सीखो

 सूरज यह जानता है 

हर समय तुम्हें तपती हुई 

धूप अच्छी नहीं लगती 

कम से कम तब तो 

बिल्कुल नहीं जब अलसाई सी 

आंखें सुबह हैं जगती 

इसीलिए वह ठंडी बयार के साथ 

अपनी सुर्ख लाल किरणों के साथ 

तुम्हें जगाने चला आता है 

उसके आलिंगन स्पर्श से 

भला कौन हर तरह का 

सुख नहीं पाता है 

बाद में वही सूरज तपता भी है 

जलाता भी है और पसीने का 

एक समंदर भी बहता है 

पर समय परिस्थिति के साथ 

कैसे बदलते रहना है इसी का 

संदेश तो वह हमारे साथ 

हमारे सामने हर पल कहता है आलोक चांटिया

Wednesday, December 21, 2022

सूरज से सीखना होगा

 सूरज रोज सुबह 

पूरब से आता है 

पश्चिम में डूबता है 

पर भला वह कब अपने

एक ही काम से उबता  है 

फिर रोज-रोज साथ चलकर भी

सूरज से तुम यह 

क्यों नहीं सीख पाए 

जिंदगी में नीरसता है 

यह कहता हर कोई मिल जाता है 

क्या सच में हम में से कोई 

सूरज से कुछ भी सीख पाता है

जब भी वह पूरब से रोज

सुबह निकल कर 

हमारे सामने आता है 

सोच के देख मानव सूरज हमको 

एक ही जीवन एक ही काम 

एक ही पथ एक ही क्रम के बारे में

 कितना कुछ बता जाता है

तेरा जीवन भी 

सूरज की तरह बन सकता है 

जब उसी की तरह की गति

 तू अपने भीतर रोज पाता है

आलोक चांटिया

Sunday, December 11, 2022

घोड़े की गर्मी से

 मुझे भी जीने दो ...........


कूड़े की गर्मी से ,

जाड़े की रात ,

जा रही है ,

पुल पर सिमटे ,

सिकुड़ी आँख ,

जाग रही है ,

कमरे के अंदर ,

लिहाफ में सिमटी ,

सर्द सी ठिठुरन ,

दरवाजे पर कोई ,

अपने हिस्से की ,

सांस मांग रही है ,

याद करना अपनी ,

माँ का ठण्ड में ,

पानी में काम करना ,

खुली हवा में आज ,

जब तुम्हारी ऊँगली ,

जमी जा रही है ,

क्यों नहीं दर्द ,

किसी का किसी को ,

आज सर्द आलोक ,

जिंदगी क्यों सभी की ,

बर्फ सी बनती ,

पिघलती जा रही है ...................




आप अपने उन कपड़ों को उन गरीबों को दे दीजिये जो इस सर्दी के कारण मर जाते है हो सकता है आपके बेकार कपडे उनको अगली सर्दी देखने का मौका दे , क्या आप ऐसे मानवता के कार्य नहीं करना चाहेंगे ??????? विश्व के कुल गरीबों के २५% सिर्फ आप के देश में रहते है इस लिए ये मत कहिये कि ढूँढू कहाँ ?? आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Saturday, December 10, 2022

फेंकी हुई रोटी

 घर के बाहर ,

अक्सर दो चार ,

रोटी फेंकी जाती है ,

कभी उसको ,

गाय खाती है ,

कभी कुत्ते खाते,

मिल जाते है ,

घर के बाहर ,

खड़ा एक भूखा ,

आदमी भूख की ,

गुहार लगाता है ,

उसे झिड़की ,दुत्कार ,

नसीहत मिलती है ,

पर वो घर की ,

रोटी नहीं पाता है ,

आदमी के साथ ,

आदमी का यह कैसा, 

रिश्ता चलता है ,

हर आदमी दूसरे को, 

क्यों पैसे से तोलता, 

यहां मिलता है...



जब आपके पास रोज घर के बाहर फेकने के लिए रोटी है तो क्यों नहीं रोज दो ताजी रोटी किसी भूखे को खिलाना शुरू कर देते है क्या मानवता का ये काम आपको पसंद नहीं कब तक गाय और कुत्तो को रोटी खिलाएंगे , ये मत कहियेगा जानवर वफादार होता है , आप बस घर के बाहर पड़ी रोटी पर सोचिये ........... आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Wednesday, December 7, 2022

क्यों मानव हम कहलाए

 चारों तरफ मोती ,

बिखरे रहे मैं ही ,

पपीहा न बन पाया ,

स्वाति को न देख ,

और न समझ पाया ,

मानव बन कर ,,

भला मैंने क्या पाया ?

ना नीर क्षीर ,

को हंस सा कभी ,

अलग ही कर पाया ,

ना चींटी , कौवों ,

की तरह ही ,

ना ही श्वानों की ,

तरह भी ,

संकट में नहीं ,

कंधे से कन्धा मिला ,

लड़ क्यों ना पाया ,

मैं मानव क्यों ,

बन नहीं पाया ?

सोचता हूँ अक्सर ,

मानव सियार क्यों ,

नहीं कहलाया ,

हिंसक शेर , भालू ,

विषधर क्यों ,

नहीं कहलाया ?

अपनों के बीच ,

रहकर उनको ही ,

खंजर मार देने के , 

गुण में कही मानव ,

जानवरों से इतर ,

मानव तो नहीं कहलाया ............



मुझे नहीं मालूम कि क्यों मनुष्य है हम और किसके लिए है हम कोई कि अगर आपको जरूरत है है तो तो आप किसी मनुष्य के बारे में जानने की कोशिश करते भी है कि वो जिन्दा है या मर गया वरना आप किसी दूसरे मनुष्य में अपना मतलब ढूंढने लगे रहते है | मैं भी इसका हिस्सा हूँ मैं किसी को दोष नही दे रहा बस समझना चाहता हूँ कि जानवर के गुण तो हमें पता है पर हम!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!आज मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गया थोड़े घाव है जो एक दो दिन में भर जायेंगे

Monday, December 5, 2022

सुबह का असर

 निकलकर अंधेरों से सुबह दस्तक तक दे रही है

ठंडी हवाओं से हर दिशा हर सांस खिल रही है 

तुम भी उजालों में आज खोज लेना अपने रास्ते आलोक

 डगर पर सूरज की किरणें तेरे साथ हो रही है 

आलोक चांटिया




हवाओं का रुख कुछ इस तरह हो गया है 


सूरज का रुख आलोक जिस तरह हो गया है 


कभी तपिश तो कभी ठंड का एहसास करा जाती है 


ताल्लुकात का असर अब सरेआम हो गया है 


आलोक चांटिया

सुबह के साथ होने का मजा

 निकलकर अंधेरों से सुबह दस्तक तक दे रही है

ठंडी हवाओं से हर दिशा हर सांस खिल रही है 

तुम भी उजालों में आज खोज लेना अपने रास्ते आलोक

 डगर पर सूरज की किरणें तेरे साथ हो रही है 

आलोक चांटिया

Saturday, December 3, 2022

सच से दूर

 मानते क्यों नहीं 

इस दुनिया में आने के लिए 

हर बीज ने एक अंधेरा 

गर्भ में जिया है 

पृथ्वी को तोड़कर या

 गर्भ की असीम प्रसव पीड़ा

के बाद ही किसी ने 

इस दुनिया में जन्म लिया है

 फिर क्यों भागते हो 

कोई भी दर्द या अंधेरा देखकर 

प्रकृति ने तुम्हें इस 

दुनिया का सच तुम्हें 

दुनिया में लाने से पहले ही दे दिया है 

जी लो इनको भी 

जीवन का असीम पहलू समझकर

 यही तो दर्शन मां,

 प्रकृति, भगवान सभी ने 

इस पृथ्वी के हर प्राणी को दिया है

आलोक चांटिया

अर्थ से दूर

 जब सुबह होने का 

अर्थ जानते हो तो ,

क्यों नहीं उजाले का

अर्थ जीवन में मानते हो l

आंखें बंद करके क्यों ,

पड़े रहते हो कमरो में ,

गति से ही सबकुछ बदलता है 

जब यह खुद मानते हो l