Saturday, November 10, 2012

ritu badal rhi hain

अधखिली धूप में जिन्दगी हस रही थी ,
धुंध फैला के ऋतु अपने  में मचल रही थी ,
मैं  डूबा अभिनव के  नाटक में इस कदर ,
जिन्दगी अनदिखी  कल ग़ज़ल रही थी ,
बार बार एक शांत नदी सी सामने पड़ी ,
न चाह कर आज वो थी फिर ऐसे खड़ी,
लगा लपक कर समेट लू फिर उसी तरह
अंधेरो की आज याद आ गयी कई कड़ी ,
बदल रहीये कौन सी ऋतु आज आ गयी
कल किसी के साथ आज किसे वो पा गयी
अकड़ के मर गया कोई आज फिर प्यार में  ,
बदला जमाना और ऋतु बदल के छा गयी ..................................कोई भी प्राणी बिना किसी माँ का रक्त मांस लिए नही जन्म पाता है और यही कारण है कि पूरे जीवन कोई भी प्राणी बिना किसी के सहारे के जी नही पाता ............तो जो आपके सहारे जी रहा है उसको स्वार्थी क्यों कहते हो ..............ऋतु भी तो बदलती रहती है पर क्या आप उसको दोष देते हैं ..नही बल्कि आप ऋतु के साथ जीने के लिए ना जाने कितने उपाए करते है ...........जिसे आप और हम संस्कृति कहते है या पजीर फैशन कहते है .............तो आज से ऊँगली उठाना बंद ...और कहिये शुभ रात्रि 

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