Wednesday, August 6, 2025

क्या सच में मानव, मानव रह गया है? — आलोक चांटिया "रजनीश"

 क्या सच में मानव, मानव रह गया है?

— आलोक चांटिया "रजनीश"


मनुष्य को किसी भी तरह से

जानवर नहीं कहा जा सकता।

मनुष्य की श्रेणी में, भला

जानवर को कहाँ रखा जा सकता?


मनुष्य ने अपनी संस्कृति गढ़कर,

ना जाने कितने पीछे

जानवरों को छोड़ दिया है।

सभ्यता, संस्कृति, प्रगति की इस दौड़ में

किसने जानवर का नाम

आदमी के साथ लिया है?


जानवर—

जिनके यहाँ कोई संस्कृति नहीं,

सिर्फ प्रजनन की बिसात होती है,

पर घर-परिवार की बात नहीं।

ऋतु-काल में मिलते हैं,

फिर अपनी-अपनी राह चले जाते हैं।


लिविंग रिलेशन का यह दौर

प्रकृति में तो जानवरों के बीच चलता है,

पर अब यही रंग

मानव की बस्तियों में भी उतर आया है।

क्या यह प्रतिबिंब

जानवर होने का संकेत नहीं?

तो भला मानव

अपने को कैसे इस बिसात पर रख सकता है?


जानवर हर मौसम में

कोई नया हमसफ़र पा लेते हैं,

फिर समय बदलते ही

दूसरा साथी ढूँढ़ लेते हैं।

उन्होंने कभी विवाह की परंपरा नहीं डाली,

सिर्फ पैदा हुए बच्चों के

क्षणिक माली बनकर रह गए।


वह नहीं चाहते

आदमी की तरह स्थायी बंधन में रहना,

इसलिए जानवर—जानवर रह गए।

पर जानवर के जीवन का

यह लिविंग रिलेशन

जब मानव में आ गया—

तो सवाल उठता है:


क्या सच में

मानव, मानव रह गया है?

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