Thursday, August 21, 2025

रिश्ते मर गए आलोक चांटिया "रजनीश"


 शहर जल्दी मरा नहीं करते,

मरते हैं तो वह लोग, 

जिनको हमने जन्म के बाद से,

अपने चारों तरफ देखा है। 

जिनके लिए हमारे मन में, 

न जाने कितना लेखा जोखा है!

कोई चाचा तो कोई चाची, 

कोई मामा कोई मामी,

कोई फूफा कोई बुआ, 

कोई भाई कोई भाभी, 

कोई भैया कोई मम्मी,

कोई पापा कोई मित्र,

तो कोई शत्रु बन जाता है। 

लेकिन जैसे-जैसे समय, बीतता जाता है।

और आयु का तना, 

मजबूत होता जाता है ।

वैसे वैसे शहर में न जाने, 

कितने रिश्ते खो जाते हैं। 

चाह कर भी हम ना देख पाते हैं।

ना याद कर पाते हैं। 

कभी-कभी किसी सड़क को,

देखकर लगता है।

यहां चाचा रहा करते थे। 

उस तरफ मोड़ पर मामा, रहा करते थे।

आगे कुछ दूर ही पर तो, बुआ रहती थी ।

जाती हुई सड़क पर,

दादी चला करती थी ।

पर अब तो कहीं कोई भी,

नहीं दिखाई देता है। 

बचपन में जिनके साथ, 

स्कूल में बैठकर खेला करता था।

खाना खाया करता था। 

वह अब जाने किस,

शहर में चले गए हैं ।

शायद अब सिर्फ यादों में रह गए हैं।

उन्हें भी अपनी शहर की, 

सड़क पर कहां पाता हूं? 

क्योंकि मैं रिश्तो के, 

नए-नए परिभाषा में चलने लगा हूं।

किसी ऑफिस में बाबू ,

तो कहीं अधिकारी कहीं पति,

कहीं जीजा कहीं साला भी तो बन गया हूं ।

अब इन्हीं के कर्तव्य में, इतना उलझा रहता हूं ।

कि जब मैं शहर में उग रहा था ,

और मेरे उगाने में न जाने कितने रिश्ते ,

मेरे चारों तरफ मुझे बचा कर रख रहे थे ।

वह सब तो अब चिता पर, 

या जमीन के नीचे ही रह रहे थे।

मैं ही अब ज्यादा लंबी नींद में सो गया हूं ।

तभी तो समय के साथ, 

रिश्तों से बहुत दूर हो गया हूं ।

रिश्ते शहर की हवाओं में अभी भी जिंदा है।

पर हम में से कोई कहां शर्मिंदा है?

क्यूंकि रिश्तो को जीने की लत,

अब किसी में नहीं रह गई है ।

बस किसी तरह जी लेना है,

इसी की जुगत रह गई है।

अब सिर्फ रिश्ते दिमाग में रह गए हैं।

किसी त्योहार किसी शादी तक,

सिमट के रह गए हैं। 

आदमी तो बस सरपट, 

भागता चला जा रहा है। 

सिंधु घाटी सभ्यता की तरह ,

कुछ अवशेष पर जीवन को टिका जा रहा है।

शहर की स्मृति में अक्सर मैं आ जाता हूं।

जब जिस शहर में पला  खेला,

वहां पर भी अपने को अकेला पाता हूं ।

रिश्तो की इन लताओं पर लिपट कर ही,

सभ्यता की दौड़ आज चली जा रही है।

बाप की उंगली बेटे के बिना,

मां का आंचल परिवार के बिना ,

एक अजीब सी कहानी कहती चली जा रही है।

 फिर भी मनुष्य को अपने को,

अलग दिखाने का गुमान, 

अभी भी दिखाई देता है। 

इसीलिए सब्जी वाला ठेला वाला,

रिक्शावाला कभी-कभी भैया की,

पुकार के साथ होता है। 

रक्षा से दूर हर बंधन, दिखाई देता है ।

जगता हुआ शहर ,

अब भी दिखाई देता है।

डर कर निकलता है।

पहले से ज्यादा आज का आदमी,

घर से बाहर मदद के लिए पुकारने पर,

कहां कोई अब खड़ा होता है ?

फिर भी मानव ने अपने को,

बहुत अलग कर लिया है।

 रिश्ते को बनाना तोड़ना और स्वयं को,

अकेला दिखा कर भी सर्वश्रेष्ठ,

कहना सीख लिया है। 

खुदाई करके शहर के बहुत से अवशेष,

अस्थियां मिल भी जाती हैं।

पर जो रिश्ते हमने शब्दों में पुकारे थे ।

उनकी महक सिर्फ मिट्टी में आती है।

चार दिवारी के सन्नाटे में, 

जब रहने की बारी आती है।

तो शहर में खोए हुए रिश्तो की,

याद बहुत आती है।

रिश्तो की याद बहुत आती है।


आलोक चांटिया "रजनीश"


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