दुनिया में एक अजीब सा,
जादू चल रहा है ।
मूर्ति को लगाकर हर कोई,
यही समझ रहा है ।
कि अब उसके घर भगवान,
आकर बैठ गए हैं।
पर धड़कते दिल चलती सांसों पर बैठे,
बुजुर्ग को वह कभी ,
भगवान समझ नहीं पाता है ।
उसके हिस्से में कभी भी स्वागत का,
वह स्वर नहीं आता है।
जिसमें भगवान के होने का,
आभास हो ,।
जिसके कारण हम सब,
इस दुनिया में आए हैं।
उनके लिए कृतज्ञता का,
एहसास हो ।
कितनी आसानी से भगवान की बात करके,
आदमी अपने को गणेश के सामने ही ,
झूठ मान लेता है।
क्योंकि जो सच है जो सर्वोच्च है,
उन गणेश की तरह ही माता-पिता को,
वह कहां भगवान का मान देता है?
आलोक चांटिया "रजनीश"

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