भगवान को भी एक तनाव से होकर,
गुजरना पड़ रहा है।
कहीं हिंदू तो कहीं मुसलमान,
ईसाई होना पड़ रहा है।
कल तक उसे भी आप में भ्रम था,
कि वह तो कण-कण में व्याप्त है,
उसका नाम लेना ही हर,
किसी के लिए पर्याप्त है।
उसने ही इस संपूर्ण,
जगत को बनाया है।
सब कुछ तिनका तिनका,
उसी के सहारे चलता है,
उससे ही जीवन पाया है,
और आज उसको भी एक लाइन,
और सीमा को पहचाना पड़ रहा है!
वह किस मानव के घर का है?
उसको बताना पड़ रहा है।
धनुष तीर मुरली लेकर वह खड़ा होगा!
या फिर बिना किसी रूप रंग के खड़ा होगा?
उसे किसी क्रॉस पर लटक कर,
अपने को अवतार बताना होगा ?
भगवान सोचता है कई परीक्षा से होकर,
उसे भी दुनिया में आना होगा।
क्योंकि जिस मनुष्य पर भरोसा करके,
उसने अवतार का रास्ता चुन लिया है,
उसे सीमाओं के दायरे में,
इतना मनुष्य ने इतना कर लिया है।
अब भगवान को समझना पड़ता है,
कि उसके होने का रास्ता,
किस-किस के घर के सामने पड़ता है?
अब भगवान की मुस्कुराने की बात,
कहां कोई करता है?
भगवान को पकड़ कर,
आदमी हंसता है,
यही सब देखकर भगवान,
एक तनाव से गुजर जाता है ।
जब वह आदमी के अधीन,
भगवान होकर भी अपने को पाता है !
आलोक चांटिया "रजनीश"
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