जिंदगी की किताब का एक पन्ना,
हर रोज कोई बंद करता है,
इस भाषा के साथ,
कि कल की सुबह में वह फिर,
एक कोरा पन्ना लेकर खड़ा होगा,
और लकीरों की बातों से खुला होगा हाथ,
इतना विश्वास करके जो आदमी,
रोज सो जाता है,
भला उसके हिस्से में हताशा निराशा ,
आत्महत्या कैसे आता है?
जरूर वह अपनी इस ताकत को,
या तो भूल गया है,
या फिर कहीं जीवन के,
समर में छोड़ गया है,
नहीं तो सुबह का भूला अगर,
शाम को घर आ जाए,
तो भूला कब कहलाता है?
आखिर मानव हताशा निराशा,
आत्महत्या से दूर अपने को,
रामकृष्ण मूसा ईशा मोहम्मद के,
अवतार वाले मनुष्य की,
पंक्ति में क्यों नहीं पाता है?
आलोक चांटिया रजनीश
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