Thursday, March 9, 2023

आदमी खो गया है

एक अजीब सा 

तनाव कह रहा है 

मन ना जाने 

कहां रह रहा है 

किससे कहूं क्या कहूं 

यह समझना मुश्किल हो गया है 

क्यों दिल का आंगन 

सन्नाटा सा हो गया है 

आहट होती भी है 

कई बार आने जाने वालों की 

स्पंदन का आसमान 

ना जाने कहां सो गया है 

हर किसी को मिट्टी में 

बोने जैसा मौसम 

रिश्तो में दिखाई देने लगा है 

ना जाने कितने बीज सूख गए हैं 

बादलों का कोना 

सूना सूना हो गया है 

दीवारें हैं दीवारों के बीच आदमी है 

आदमी है आदमी के भीतर 

धड़कता दिल भी है पर 

ना दरवाजा चारदीवारी के बाहर 

अब किसी के इंतजार में दिखता है 

ना ही दिल किसी के 

आने की बांट रखता है 

कुछ लोग समझ गए हैं 

कुछ समझने की 

जुगत में लगे हुए हैं 

आदमी तो जिंदा दिखाई दे रहे हैं 

पर जिंदा रहने की 

जुगत में सिमट गए हैं 

आदमी ने मशीन को बनाकर 

अपने को दुनिया में दिखाया है 

पर मशीन बन कर खुद 

उस आदमी के हिस्से में 

कुछ नहीं आया है 

खाना सोना उठना पैसा सब

 समय की आहट में 

छिप सा गया है 

इस धरा से ना जाने कितने 

जानवर खत्म हो गए 

और आदमी भी आदमी से 

आलोक दूर रह गया है 

आलोक चांटिया

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