एक अजीब सा
तनाव कह रहा है
मन ना जाने
कहां रह रहा है
किससे कहूं क्या कहूं
यह समझना मुश्किल हो गया है
क्यों दिल का आंगन
सन्नाटा सा हो गया है
आहट होती भी है
कई बार आने जाने वालों की
स्पंदन का आसमान
ना जाने कहां सो गया है
हर किसी को मिट्टी में
बोने जैसा मौसम
रिश्तो में दिखाई देने लगा है
ना जाने कितने बीज सूख गए हैं
बादलों का कोना
सूना सूना हो गया है
दीवारें हैं दीवारों के बीच आदमी है
आदमी है आदमी के भीतर
धड़कता दिल भी है पर
ना दरवाजा चारदीवारी के बाहर
अब किसी के इंतजार में दिखता है
ना ही दिल किसी के
आने की बांट रखता है
कुछ लोग समझ गए हैं
कुछ समझने की
जुगत में लगे हुए हैं
आदमी तो जिंदा दिखाई दे रहे हैं
पर जिंदा रहने की
जुगत में सिमट गए हैं
आदमी ने मशीन को बनाकर
अपने को दुनिया में दिखाया है
पर मशीन बन कर खुद
उस आदमी के हिस्से में
कुछ नहीं आया है
खाना सोना उठना पैसा सब
समय की आहट में
छिप सा गया है
इस धरा से ना जाने कितने
जानवर खत्म हो गए
और आदमी भी आदमी से
आलोक दूर रह गया है
आलोक चांटिया
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