: अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर भारतीय महिलाओं के 11 विशेष अधिकार
1-वैसे तो एक अबोध लड़की का स्वरूप देवी का है उसके अंदर मां का अस्तित्व है और पूरी पृथ्वी स्वयं एक मां के रूप में स्थापित है जितनी नदियां हैं सभी मां के रूप में स्थापित है फिर भी संपूर्ण पृथ्वी पर फैली हुई संस्कृतियों के आपस में उत्पन्न हुए संक्रमण और पर संस्कृति ग्रहण के कारण हर संस्कृति में महिला को एक सांस्कृतिक संक्रमण के उस दौर से भी होकर गुजरना पड़ा है जिसमें उसे दूसरी संस्कृतियों में अपनाए जाने वाले नियमों के आधार पर समाज में रखने का प्रयास किया गया है और भारतीय समाज भी इससे अछूता नहीं रहा है लेकिन जैसे-जैसे उपनिवेश काल समाप्त हुआ और भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित हुआ उस देश भारत में भी महिलाओं को अपने प्राचीन समय के वैभव से दूर एक दोयम दर्जे के अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ा जिससे वैधानिक दायरे में सदैव दूर करने का प्रयास किया गया है और इसी के अंतर्गत कुछ ऐसे अधिकार जो सामान्य लोगों तक नहीं पहुंचे हैं या उसके बारे में जानकारी नहीं है उसको ही इस लेख में दर्शाने का प्रयास किया गया है
बच्चे के जन्म की वैधानिकता आमतौर पर यह बात किसी भी संस्कृति में नहीं स्वीकार की जाती रही है कि महिला अपनी इच्छा से संतान की उत्पत्ति कर सकें कहने का तात्पर्य है कि उसके लिए उसके पास एक वैधानिक पति या एक ऐसा वैधानिक व्यक्ति होना चाहिए जिसके बारे में समाज को भली-भांति ज्ञात हो और यदि ऐसा नहीं है तो महिला के द्वारा उत्पन्न बच्चे को सदैव से ही एक नाजायज संतान माना गया है और ऐसी संतानों को समाज में अच्छा नहीं माना गया ना ऐसी महिला को अच्छा माना गया लेकिन अब ऐसा नहीं है हिंदू अल्पसंख्यक और अभिभावक अधिनियम 1956 के अंतर्गत या प्रावधान किया गया है यदि कोई महिला बिना विवाह के कोई संतान पैदा करती है या वह एक ऐसे पुरुष के साथ संतानोत्पत्ति करती है जिसका नाम और समाज में नहीं लाना चाहती है तो ऐसी सिंगल मदर को इस बात के लिए विवश नहीं किया जा सकता है कि वह उस बच्चे के वैधानिक पिता के बारे में किसी को कुछ भी बताएं और ना ही किसी भी संस्थान में किसी भी शैक्षणिक संस्थान में यदि महिला अपने बच्चे के पिता के बारे में कुछ नहीं बताना चाहती है उसके जैविक पिता के बारे में उल्लेख नहीं करना चाहती है तो इसके लिए उसे विवश नहीं किया जा सकता है और इस बात को केरल हाई कोर्ट तथा भारत की सर्वोच्च न्यायालय नई दिल्ली द्वारा भी स्पष्ट रूप से अपने आदेशों में कहा जा चुका है
2- नाम का अधिकार यदि एक बड़ी सामान्य सी बात है कि जब कोई भी बच्चा किसी परिवार में जन्म लेता है तो आमतौर पर उस परिवार के पुरुष मुखिया के ही उपनाम के द्वारा उस बच्चे का नाम जाना जाता है यहां तक कि जब बेटी के जन्म के संदर्भ में उसका विवाह हो जाता है तो विवाह के बाद वह अपने पति द्वारा प्रयोग किए जाने वाले उपनाम को सामान्यतया अपने नाम के साथ जोड़कर अपने नाम को परिवर्तित कर लेती हैं लेकिन अब महिला के अधिकारों के दायरे में इस बात की भी स्वतंत्रता उसे प्रदान की गई है कि वह अपने नाम के साथ अपनी इच्छा के उपनाम को जोड़ सकती है यह जरूरी नहीं है कि वह अपने पिता या अपने पति के ही सरनेम को जोड़कर अपने जीवन में अपने नाम को रखें दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा इस बात को आदेशित करते हुए इस बात पर भी टिप्पणी की गई कि यदि कोई महिला अपने नाम के साथ अपने मन का कोई सरनेम रखना चाहती है तो इसमें परिवार के किसी भी व्यक्ति को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह उसकी स्वतंत्रता का विषय है और इस तरह से महिला द्वारा अपने मन से अपना नाम रखे जाने के अधिकार प्राप्त होना 1 मील के पत्थर से कम नहीं है
3- जन्म लेने का अधिकार इतिहास गवाह है कि लड़की के जन्म को कभी भी परिवार ने अच्छा नहीं माना है और उसे अपने घर की प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा है इसीलिए ज्यादातर यह होता आया है कि लड़की का जन्म जानने के बाद या तो उसे जन्म से पहले मार दिया जाता था या फिर जन्म लेने के बाद मार दिया जाता था और इस स्थिति में जब से गर्भ में पल रहे बच्चे की सोनोग्राफी के द्वारा लिंग जानने की स्थितियां विकसित हुई तब से महिलाओं की भ्रूण हत्या का प्रतिशत बहुत ज्यादा बढ़ गया लेकिन महिला भी मानव के पुरुष की समानता की ही श्रेणी का एक हिस्सा है और इसीलिए सरकार द्वारा पीएनडीटी एक्ट बनाकर इस बात को स्थापित किया गया कि कोई भी नर्सिंग होम अस्पताल प्राइवेट डॉक्टर लिंग जांच के आधार पर अपने यहां कोई कार्य नहीं कर सकता है और इसे एक अपराधिक कृत्य घोषित कर दिया गया जिसमें जेल के साथ-साथ जुर्माने का भी प्रावधान किया गया यहां तक कि हर नर्सिंग होम अस्पताल डॉक्टर को अपने यहां स्पष्ट रूप से एक बोर्ड लगा कर लिखना पड़ता है कि उनके क्या लिंग निर्धारण की कोई जांच नहीं होती है इसलिए महिलाओं के लिए यह एक ऐसा समय था या है जिसमें गर्भवती महिला यदि चाहे तो उसको गर्भ गिराने के लिए गर्भपात कराने के लिए किसी भी तरह से विवश नहीं किया जा सकता है
4- शिक्षा का अधिकार सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र हो या फिर मानवाधिकार अधिनियम 1993 या भारत की सर्वोच्च वैधानिक पुस्तक भारतीय संविधान हूं सभी के प्रकाश में समानता का मौलिक अधिकार इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि अब कोई व्यक्ति इस आधार पर यह निर्णय नहीं ले सकता कि उसे लड़कों को पढ़ाना है लड़कियों को नहीं पढ़ाना है या फिर लड़कियों को शिक्षा उच्च स्तर की नहीं देना है जिससे वह स्वावलंबी बन सके उनका सशक्तिकरण हो सके अब महिलाएं भी लड़कियां भी अपनी इच्छा से अपनी मनपसंद शिक्षा को ग्रहण कर सकती है गुणवत्ता परक शिक्षा ग्रहण कर सकती हैं और इसी अधिकार को पूर्णता प्रदान करने के लिए भारत सरकार द्वारा बहुत सी योजनाएं चलाई जा रही है बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ का एक महत्वपूर्ण नारा भारत सरकार द्वारा दिया गया है यही नहीं संवैधानिक अधिकारों में अनुच्छेद 21a के अंतर्गत आठवीं तक की शिक्षा सभी के लिए पूरी तरह निशुल्क की गई है लेकिन बहुत से राज्यों द्वारा लड़कियों की शिक्षा इंटरमीडिएट तक बिल्कुल मुफ्त कर दी गई है और इन सब के पीछे यही एक महत्वपूर्ण कारण है कि आज के दौर में महिलाएं सिर्फ घर की चारदीवारी में कैद होकर ना रह जाए वह बाहर की दुनिया को पूरी तरह समझे जाने और इसके लिए वह शिक्षा के अपने मौलिक अधिकार को पा सके और इस आधार पर महिला को कोई शिक्षा ग्रहण करने से ना तो रोक सकता है ना उनकी शिक्षा बाधित कर सकता है गांव उन्हें दोयम दर्जे की शिक्षा देकर उनके जीवन में अंधकार को बढ़ावा दे सकता है इसके लिए वह अपने वैधानिक अधिकारों का प्रयोग कर सकती हैं
5- महिला सशक्तिकरण का अधिकार सशक्तिकरण के अर्थ में महिला द्वारा अपने जीवन को सशक्त बनाने के लिए सिर्फ शिक्षा ही नहीं पैसा कमाने की आर्थिक साधन भी ढूंढे जा सकते हैं वह व्यवसाय कर सकती हैं वह नौकरी कर सकती हैं और भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार अनुच्छेद 14 के प्रकाश में पुरुष स्त्री के मध्य में कोई इस आधार पर समानता को विभाजित नहीं कर सकता है और ना ही अनुच्छेद 15 के आधार पर लिंग के आधार पर विभाजन करके उनकी सामाजिक स्थिति खासतौर से आर्थिक स्थिति को सुनिश्चित कर सकता है उन्हें समान कार्य के लिए समान वेतन पाने का अधिकार प्राप्त है उन्हें लिंग के आधार पर दोयम दर्जे का नहीं समझा जा सकता है
6- विवाह का अधिकार वैसे तो भारतीय समाज में महिलाओं के लिए उनकी स्थापित संस्कृति में ही विवाह को एक परंपरा के रूप में देखा गया है लेकिन वैधानिक भारत में अब महिला अपनी स्वेच्छा से भी अपना वर् का चुनाव कर सकती है और यहां पर भी वहां किसी भी धर्म जाति वर्ग के व्यक्ति को अपना जीवन साथी बना सकती है इसके लिए वह स्वतंत्र है और ऐसा ही वयस्कता अधिनियम 18 सो 75 में स्पष्ट कर दिया गया है कि 18 वर्ष की उम्र को प्राप्त होने के बाद कोई भी व्यक्ति अपना अच्छा बुरा समझ सकता है वह अपने जीवन के लिए निर्णय ले सकता है और इसी को आधार बनाकर महिलाओं के जीवन में वर् को चुनने का अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार बनकर उभरा है और डॉक्टर अंबेडकर द्वारा भी 1936 में इस बात को स्वीकार किया गया था कि यदि सामाजिक गतिशीलता और समरसता की स्थापना किया जाना है तो विवाह में जातिगत आधारों को महत्त्व देने के बजाय अपनी इच्छा से विवाह किए जाने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ताकि भारत में समानता स्थापित हो सके और इस दृष्टिकोण से भारतीय महिला का यह अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है कि वह किसी भी व्यक्ति से निर्धारित आयु के पश्चात विवाह कर सकती है उसके साथ रह सकती है
7- विवाह में दहेज के विरोध का अधिकार भारतीय समाज में महिलाओं को जो परंपरागत रूप से विवाह किए जाने में सबसे बड़ी बाधा का सामना करना पड़ता है वह है माता पिता द्वारा दहेज को इकट्ठा किए जाने के कारण उनकी इच्छा के अनुसार वर्ग को ना ढूंढ पाना और ऐसे में लड़की का विवाह किसी के भी साथ कर दिए जाना क्योंकि माता-पिता जिस स्तर का दहेज एकत्र करते हैं उसी स्तर के व्यक्ति के साथ वह अपने बेटी की शादी करने का साहस जुटा पाते हैं और ऐसे में दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961 बन जाने के बाद कम से कम भारतीय महिला के सामने जहां एक तरफ विवाह को किए जाने की स्वतंत्रता पैदा हुई वहीं पर विवाह में दहेज मांगे जाने का विरोध किए जाने और दहेज के आधार पर शादी से इनकार किए जाने का भी अधिकार उसे प्राप्त हो गया और ऐसे बहुत से प्रकरण सुनने में आए हैं जब लड़कियों ने अपनी प्रस्तावित शादी को इसीलिए इनकार कर दिया क्योंकि लड़के वालों की तरफ से अनाधिकृत रूप से और अवांछित तरीके से दहेज की मांग की गई यह एक ऐसा मील का पत्थर है जो आने वाले समय में दहेज को उसकी न्यूनता की तरफ ले जा सकता है लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि ज्यादा से ज्यादा महिलाएं अपने इस अधिकार का प्रयोग करें और दहेज को लेने वाले व्यक्तियों से किनारा करें
8- घरेलू हिंसा के विरुद्ध अधिकार रिश्ते स्वर्ग में बनते हैं पति परमेश्वर होता है जिस घर में डोली जाती है उसी घर से अर्थी उठनी चाहिए ससुराल ही सब कुछ होता है ऐसी बहुत सी बातों के साथ भारतीय समाज में लड़की का जीवन विवाह के बाद एक ऐसी स्थिति से गुजरता है जहां पर वह अपने साथ होने वाले सारी शारीरिक और मानसिक अत्याचारों को चाहती थी उसके साथ जीती थी लेकिन वह अपने मायके वालों से कुछ इसलिए भी नहीं कहती थी क्योंकि उसके संस्कार और दहेज जैसी स्थितियां उसे अपना शोषण सहने की तरफ ज्यादा प्रेरित करती थी लेकिन वर्ष 2005 में भारत वर्ष में महिला के अधिकारों में घरेलू हिंसा अधिनियम लाया गया और जिसमें पति सहित पति की तरफ के किसी भी व्यक्ति या किसी भी रिश्तेदार या उससे संबंधी व्यक्ति द्वारा यदि महिला का किसी भी तरह से शारीरिक मानसिक शोषण किया जाता है तो वह उसके विरुद्ध आवाज उठा सकती है थाने में शिकायत कर सकती है सीधे न्यायालय जा सकती है अपने भरण-पोषण के लिए दावा कर सकती है अपने आवास के लिए मांग कर सकती है और सम्मानजनक तरह से रहने के लिए वाद ला सकती है इस तरीके से घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के आने के बाद महिलाओं के अधिकारों में एक ऐसी शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ है जिसने महिला को स्वयं मानव होने और गरिमा पूर्ण जीवन जीने की तरफ प्रेरित किया है
9- कार्यक्षेत्र पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध अधिकार घर परिवार से इतर जब कोई भी महिला घर से बाहर अपनी सशक्तिकरण के अर्थ में नौकरी करती है चाहे वह प्राइवेट और चाहे सरकारी हो तो उससे मानव के प्राकृतिक गुणों के साथ भी रहना पड़ता है जिसके कारण कई बार उससे इस बात का एहसास कराया जाता है कि वह औरत है नारी है और इस तरीके से उसके साथ उन स्थितियों को भी उत्पन्न कर दिया जाता है जिसमें महिलाएं असहज महसूस करती हैं उनको शब्दों के द्वारा व्यवहार के द्वारा उत्पीड़ित किया जाता है और यही उत्पीड़न ना हो महिला उसके लिए आवाज उठा सके इसलिए कार्यस्थल पर महिला उत्पीड़न प्रतिषेध अधिनियम 2013 भारत सरकार द्वारा बनाया गया जिसके बनाने का उद्देश्य ही था कि चाहे महिला अंशकालिक हो चाहे वह पूर्णकालिक हो चाहे वह दैनिक भोगी कर्मचारी हो यदि उसके साथ शाब्दिक से व्यवहारिक रूप से मानसिक रूप से किसी भी सरकारी गैर सरकारी अर्द्ध सरकारी कार्यालय में काम करने वाले सहकर्मियों द्वारा या उनके समकक्ष व्यक्तियों द्वारा कोई ऐसा व्यवहार किया जाता है जिससे महिला को कार्य करने में असहजता महसूस होती है वह अपने को उत्पीड़ित महसूस होती है उसे शब्दों के द्वारा ऐसी बातें कहीं जाती हैं जिसके कारण वह अपने को सामान्य नहीं पाती है तो वह प्रत्येक कार्यालय या उसके द्वारा निर्देशित स्थानों पर बनाई गई महिला उत्पीड़न आंतरिक समिति में तत्काल शिकायत कर सकती है और उन शिकायत करने वालों में जो सदस्य हैं जो एनजीओ है उसकी जांच करते हैं और यदि जिस व्यक्ति ने उत्पीड़ित किया है वह दोषी पाया जाता है तो उसको सजा का प्रावधान किया गया है और इस अधिकार को दिए जाने के कारण महिलाओं के जीवन में बहुत सुगमता आइए धीरे-धीरे इसका प्रसार होने के कारण पुरुष मानसिकता पर अंकुश लगने लगा है और वह महिलाओं के साथ एक नियंत्रित व्यवहार करने लगे हैं गरिमा को ही स्थिति प्रस्तुत करने लगे हैं ताकि महिलाएं अपने जीवन को सुगम बना सकें और अपने इसी अधिकार के कारण अपने जीवन को भी सुरक्षित बना सके
10- प्रसूति अवकाश का अधिकार किसी भी भारतीय महिला सहित विश्व की कोई भी महिला अपने जीवन काल में मां जैसे उच्च शब्द से अपने जीवन को अलंकृत करना चाहती है लेकिन मां बनना एक कठिन कार्य है और जब वह गर्भवती होती है तो उस दौरान उसको बहुत सी ऐसी समस्याओं से होकर गुजरना पड़ता है जिसे वह सामान्य रूप से सभी से नहीं कह सकती है और यही कारण है कि ऐसे समय में महिलाओं को प्रसूति अवकाश का प्रावधान किया गया जो अब 6 माह निर्धारित कर दिया गया है कोई भी महिला जो कार्यरत है चाहे सरकारी चाहे गैर-सरकारी चाहे हरद सरकारी में और उसके कार्य करने की प्रकृति भले ही वह अंशकालिक है दैनिक भोगी है पूर्णकालिक है उससे अपने सेवायोजन के माध्यम से 6 माह का पूर्ण वेतन वाला उपवास पाने का अधिकार प्राप्त है या उसका मौलिक अधिकार है और यदि इस तरह का अवकाश नहीं दिया जा रहा है तो वह उसके लिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के माध्यम से शिकायत दर्ज करा सकती है वह राष्ट्रीय महिला आयोग या राज्य महिला आयोग में शिकायत दर्ज करा सकती है और उस के माध्यम से अपने इस प्रसूति अवकाश का लाभ ग्रहण कर सकती हैं या उसके ऊपर होता है कि वह गर्भवती होने के बाद किस स्थिति तक अपने जीवन में इस अवकाश को कैसे ग्रहण करना चाहती है और ऐसे अवकाश के कारण ही महिलाओं को मनोवैज्ञानिक रूप से इस बात से भयमुक्त किया गया है कि वह मां बनने के दौरान होने वाली विषम परिस्थितियों के भय से मुक्त हो सके और उसी मुक्ति में यह अधिकार एक महत्वपूर्ण अधिकार है
11- बच्चों के रखरखाव का अधिकार कहते हैं कि यदि महिला पढ़ी लिखी हो तो पूरा परिवार पढ़ा लिखा हो जाता है बच्चों के चरित्र का निर्माण भी मां ही करती है और ऐसी स्थिति में मां के लिए आवश्यक है कि वह ज्यादा से ज्यादा समय है अपने बच्चों के साथ दें ताकि उनके अंदर सामाजिक सांस्कृतिक और चारित्रिक विशेषताओं को वह सही ढंग से पिरो सके और इसी बात को महसूस करते हुए महिलाओं को चाइल्ड केयर लीव दिए जाने का प्रावधान किया गया है जो महत्तम 2 साल की ली जा सकती है जब तक बच्चे इंटरमीडिएट पास नहीं हो जाते हैं उस समय की स्थिति तक महिला अपनी आवश्यकता अनुसार इस अवकाश को अपने सेवायोजन के माध्यम से ले सकती है और अपने बच्चों की सामाजिक सांस्कृतिक स्थिति को मजबूत बनाने के लिए इस छुट्टी को अपने अधिकार की तरह इस्तेमाल कर सकती है
इसके अतिरिक्त महिलाओं के जीवन में अब जिस घर में वह पैदा हुई है उस घर की भी संपत्ति में उनका अधिकार होता है अपने पति की संपत्ति में भी अधिकार होता है यदि महिलाएं काम करती हैं और उनके बच्चे हैं और पति किसी खर्चे को नहीं भी उठाना चाहता है तब भी देश में यह कानून बना दिया गया है कि पिता किसी भी स्थिति में हो उसे भरण-पोषण का भार उठाना ही पड़ेगा और इस अर्थ में मां बनने के महिला के नैसर्गिक गुणों को एक स्थायित्व प्रदान किया गया है और पुरुष की जिम्मेदारी को सुनिश्चित किया गया है बच्चों की सामाजिक स्थिति को सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं का यह अधिकार 1 मील की पत्थर की तरह स्थापित हुआ है और इस तरह हम देखते हैं कि आज जब विश्व स्तर पर विश्व महिला दिवस मनाया जा रहा है तो भारतीय समाज में महिला को स्वतंत्रता से पूर्व वैदिक साहित्य के दौर की सशक्त महिला की तरह वर्तमान में वैधानिक भारत में भी एक पूरी तरह समानता वाला अधिकारों से परिपूर्ण नागरिक बनाने के लिए बहुत सा ऐसा प्रयास किया गया है जो आने वाले समय में महिला को फिर से गार्गिया पाला घोषा बनाने में सहायक होगा
( डॉ आलोक चांटिया अखिल भारतीय अधिकार संगठन लेखक विगत दो दशकों से मानवाधिकार विषयक विषयों पर जागरूकता कार्यक्रम चला रहे हैं)
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