दिन भर मुट्ठी में
उजाला पकड़ता रहा ,
फिर भी क्यों मन
अँधेरे से डरता रहा ,
पग ने भी जाने कितना
पथ चल डाला ,
कहते जीवन को
अब भी है , मधु शाला ,
सृजन का असली
मतलब तारे समझाए
देख निशा के संग
कुछ सपने भी है आये ,
बुन कर इनको फिर
नींद के रंग से भर दो ,
सांसो की वीणा से
मन्त्र मुग्ध सा कर दो ,
आलोक की आहट सोच
रात छोटी हो जाये ,
हर आँखों का स्वप्न
पूरब का दर्शन भर दो ।
आलोक चांटिया
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