ऐसा नही है कि लोग
मुस्कराना भूल गए है ,
बस जलते हुए घर को
बुझाना भूल गए है ,
जिन्दगी कुछ इस तरह
दौड़ती भाग रही है ,
गिरते हुए लोग को हम
उठाना भूल गए है ,
रात को भी दिन समझ
काम से है जूझ रहे ,
आलोक के राग पर हम
गुनगुना भूल गए है ,
आलोक चांटिया
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