Friday, December 27, 2019

मैं जिसको उस मोड़ पर


मैं जिसको उस मोड़ पर ,
मानो ना मानो ,
छोड़ आया हूँ ,
और कुछ भी नहीं बस ,
वो मेरा कल जिसे ,
उम्र बना लाया हूँ |
लोग कहते है अब मुझे ,
कुछ बदल से गए हो ,
आलोक इस तरह ,
क्या कहूं उनसे भी ,
कुछ भी नहीं बदला ,
सिवा इस उम्र की तरह ..........
Alok Chantia
अखिल भारतीय अधिकार संगठन

जब भी मैं आवाज देता हूं

जब भी मैं आवाज देता हूं तुम्हें बोलना गवारा नहीं होता
शायद तुम्हें समझा ना पाऊं हर कोई दुनिया में आवारा नहीं होता
आलोक चांटिया
2
जानते सभी है रात होना ही है
पर तारों की तलब कितनो को है
आलोक चान्टिया
3
क्यों दूर तक सोचने की आदत पाल ली
आँखों ने आलोक कब सारी दूरी जान ली
आलोक चान्टिया
4
चलो आज एक जिद पाल लेते हैं
रास्ता लम्बा कितना जान लेते हैं आलोक चान्टिया

तुम समझ ही ना पाये


तुम समझ ही ना पाये ,
कि हम यहाँ क्यों आये ?
बस समझते रहे ,
सुबह से शाम तक ,
जिन्दा रहने को ,
आखिर किससे कहे ,
यूँ तो मानते हो ,
तुम कुछ अलग हो ,
उन सब से ज्यादा ही ,
पर वो भी भाग रहे ,
तुम भी भाग रहे ,
जानवरो से ज्यादा ही ,
क्या आलोक नहीं है ,
जिंदगी में तुम्हारी ,
पीछे क्या रह जायेगा ,
जिंदगी के बाद हमारी ..................अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Tuesday, December 17, 2019

रात रावन की भी थी और राम की भी

रात रावन की भी थी और राम की भी ...................दिन रावन का भी है और राम का भी ..................दोनों चलेंगे कर्म के पथ पर पुर जोर ....................तय खुद से करो तुम चलोगे किस ओर....................क्यों कि दिन तुम्हारा भी है और हमारा भी .........शोहरत मेरी भी है और तेरी भी है ....................जाना ही है जब दुनिया से आलोक ...............तय खुद से करो क्या बनना तुम्हे इस लोक .....................मन में अजीब सी उलझन है क्योकि मैं समझ नही पा रहा कि जो लोग इस दुनिया में आये हैं वो रावन का जीवन क्यों ज्यादा पसंद कर रहे है

Wednesday, December 11, 2019

# जाड़ा


# जाड़ा
मुझे भी जीने दो ...........
कूड़े की गर्मी से ,
जाड़े की रात ,
जा रही है ,
पुल पर सिमटे ,
सिकुड़ी आँख ,
जाग रही है ,
कमरे के अंदर ,
लिहाफ में सिमटी ,
सर्द सी ठिठुरन ,
दरवाजे पर कोई ,
अपने हिस्से की ,
सांस मांग रही है ,
याद करना अपनी ,
माँ का ठण्ड में ,
पानी में काम करना ,
खुली हवा में आज ,
जब तुम्हारी ऊँगली ,
जमी जा रही है ,
क्यों नहीं दर्द ,
किसी का किसी को ,
आज सर्द आलोक ,
जिंदगी क्यों सभी की ,
बर्फ सी बनती ,
पिघलती जा रही है ...................
आप अपने उन कपड़ों को उन गरीबों को दे दीजिये जो इस सर्दी के कारण मर जाते है हो सकता है आपके बेकार कपडे उनको अगली सर्दी देखने का मौका दे , क्या आप ऐसे मानवता के कार्य नहीं करना चाहेंगे ??????? विश्व के कुल गरीबों के २५% सिर्फ आप के देश में रहते है इस लिए ये मत कहिये कि ढूँढू कहाँ ?????? अखिल भारतीय अधिकार संगठन

घर के बाहर , अक्सर दो चार


घर के बाहर ,
अक्सर दो चार ,
रोटी फेंकी जाती है ,
कभी उसको ,
गाय खाती है ,
कभी कुत्ते खाते,
मिल जाते है ,
घर के बाहर ,
खड़ा एक भूखा ,
आदमी भूख की ,
गुहार लगाता है ,
उसे झिड़की ,दुत्कार ,
नसीहत मिलती है ,
पर वो घर की ,
रोटी नहीं पाता है .....................
जब आपके पास रोज घर के बाहर फेकने के लिए रोटी है तो क्यों नहीं रोज दो तजि रोटी किसी भूखे को खिलाना शुरू कर देते है क्या मानवता का ये काम आपको पसंद नहीं कब तक गाय और कुत्तो को रोटी खिलाएंगे , ये मत कहियेगा जानवर वफादार होता है , आप बस घर के बाहर पड़ी रोटी पर सोचिये ...........अखिल भारतीय अधिकार संगठन

Monday, December 9, 2019

अंधेरे कासीना चीर

अंधेरे का सीना चीर जब सूरज सामने आता है
सुबह उसका नूर आलोक किसे नहीं भाता है

रौशनी का जरा सा साथ

रौशनी का जरा सा साथ ..............पाकर कली खिल तो गयी ..............पर पश्चिम का हुआ नही सूरज ...............कि देखो मिटटी में मिल गयी ................रात को कहा तरस आता है ................. उसे बंद आंख में मजा आता है .....................तुम  सपने  की आदत डाल लो ...............वरना सच में कोई सो जाता है .................... अगर आप ने बुरे के साथ जीना नही सिखा तो वह आपको ख़त्म कर देगा ..............इसी लिए रात में सोने का अपना मजा है ....तो चलिए कहिये शुभ रात्रि

रात गयी बात भी गयी

रात गयी बात भी गयी ..............लेकर सपनो की बारात गयी ................रोक भला कौन पाया है उसको ....................आराम की हर अब बात गयी ................लेकिन अपने पीछे जो छोड़ा ....................वो देकर पूरब का साथ गयी .............देखो कैसा चमक रहा सूरज है .....................आलोक से नहलाने के बाद गयी ......................ऐसा नही है कि जीवन में सब कुछ ख़राब ही होता है ...रात जब जाती है तो कालिमा सपनो से दूर हमको हमरी मंजिल  , सूरज के साथ छोड़ जाती है तो फिर कहिये सुप्रभात

ये देश अब मरा मरा रटने लगा है

ये देश अब मरा मरा रटने लगा है ,
राम का शहर कैसा लगने लगा है ,
क्यों रत्नाकर पैदा हो रहे हर तरफ?
बाल्मीकि बनने से मन हटने लगा है l
आलोक चान्टिया

आज की सुबह कुछ तंग है

आज की सुबह कुछ तंग है ........
परेशान थोडा कोहरे के संग है ..........
.जुटी है जतन से बाहर के लिए ......
क्योकि पूरब का अपना ही रंग है .....
कुहासा का भी जीवन अपना है .....
उसका भी कोई तो सपना है .....
आज सूरज से उसकी जंग है ....
जीने का उसका अपना ही ढंग है .....
आप जीवन को यह समझ कर कि उसमे परेशानी  नहीं आनी चाहिए जीते है पर सूरज को क्या कम  परेशानी है बादल कोहरा सबका सामना करके वह हमारे बीच  मैं है यही असली जीवन का दर्शन

घनीभूत पीड़ा को लेकर

घनीभूत पीड़ा को लेकर आता नही है कौन यहाँ ..............हर पल पीड़ा में रह कर जीता नही है कौन यहाँ .............पीड़ा को देकर ही बीज फूटता धरती को कर विकल ...................पीड़ा ही अंतिम सत्य दर्द को  समझा नही कोई यहाँ ...................पीड़ा को  तुम गले लगाकर हस सकते हर मोड़ पर ................आलोक को  फैला सकते हो अपनी कर्मो के छोर पर ...............सुप्रभात

चारों तरफ मोती , बिखरे रहे मैं ही

चारों तरफ मोती ,
बिखरे रहे मैं ही ,
पपीहा न बन पाया ,
स्वाति को न देख ,
और न समझ पाया ,
मानव बन कर ,,
भला मैंने क्या पाया ?
ना नीर क्षीर ,
को हंस सा कभी ,
अलग ही कर पाया ,
ना चींटी , कौवों ,
की तरह ही ,
ना ही श्वानों की ,
तरह भी ,
संकट में क्यों नहीं ,
कंधे से कन्धा मिला ,
लड़ क्यों ना पाया ,
मैंने मानव बन ,
क्यों नहीं पाया ?
सोचता हूँ अक्सर ,
मानव सियार क्यों ,
नहीं कहलाया ,
हिंसक शेर , भालू ,
विषधर क्यों ,
नहीं कहलाया ?
अपनों के बीच ,
रहकर उनको ही ,
खंजर मार देने के ,
गुण में कही मानव ,
जानवरों से इतर ,
मानव तो नहीं कहलाया ............मुझे नहीं मालूम कि क्यों मनुष्य है हम और किसके लिए है हम कोई कि अगर आपको जरूरत है है तो तो आप किसी मनुष्य के बारे में जानने की कोशिश करते भी है कि वो जिन्दा है या मर गया वरना आप किसी दूसरे मनुष्य में अपना मतलब ढूंढने लगे रहते है | मैं भी इसका हिस्सा हूँ मैं किसी को दोष नही दे रहा बस समझना चाहता हूँ कि जानवर के गुण तो हमें पता है पर हम!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!आज मैं ?????? आलोक चांटिया

मानव ..........

अखिल भारतीय अधिकार संगठन विश्व मानवाधिकार दिवस की पूर्व संध्या पर ये विचार करना जरुरी है कि क्यों मानव को अधिकारों की जरूरत पड़ी क्या वो भटक गया है .हम किस मानव के अधिकारों के लिए चिंतित है.............
मानव ..........
कही कुछ आदमी ,
मिल जाये तो ,
मिला देना मुझ से l
दो पैरों पर ,
चलने वाले क्या ,
मिट गए जमी से l
जीते रहते ,
खुद की खातिर ,
जैसे गाय और भालू l
रात और दिन ,
बस खटते रहते,
भूख कहाँ मिटा लूँ ?
कभी तो निकलो ,
अपने घर से ,
चीख किसी की सुनकर l
कुचल जाएगी पर ,
निकलती चीटीं ,
हौसला मौत का चुनकर l
राम कृष्णा ,
ईसा, मूसा की बातें ,
क्या कहूँ किसी से ?
चल पड़े जो ,
इनके रास्तों पर ,
ढूंढो उसे कही से ?
मिल जाये कही ,
जो कुछ आदमी ,
जरा मिला दो मुझ से l
जो फैलाये आलोक ,
अँधेरा करें दूर ,
मानव अधिकार उन्ही से l

.......................क्या आप ऐसे आदमी बनने की कोशिश करेंगे ???????????????///////, आलोक चांटिया

Sunday, December 1, 2019

हाथ छुड़ा कर चली रात जब

हाथ छुड़ा कर चली रात जब ...................नींद को छोड़ खुली आँख तब ...........जो देखा वो मन को भाया.................पूरब मिलने मुझसे था आया ..............अन्जाना वो भी न मुझसे ................पर लगा उसे आज ही पाया ............भरी चपलता चाल में मेरी .............आलोक का स्पर्श कुछ ऐसा छाया ........................प्रेम की अपनी दास्ताँ है और उसे समझना किसी के बस में नही है पर ऐसा लगता है कि हम अपनी जरूरत के अनुसार प्रेम करते है .कभी रात के कभी दिन के किसी एक के होकर रहना हमारी फितरत नही है पर सोच तो सकते है ना तो चलिए कह ही देते हैं सुप्रभात

रात अब गहराने लगी है

रात अब गहराने लगी है .............काजल सी मुस्काने लगी है ..............सुंदर लगने लगे सपने आँखों में ......................पलकों के दरवाजे छिपाने लगे है ...................मैं भी आना चाहता हूँ एक बार ....................आलोक में काले बादल छाने लगे है ................ बरसेंगे आज फिर सन्नाटे में भरपूर ..................सिलवटो के राज फिर आने लगे है ........................ रात आपको अपने से मिलने का भरपूर मौका देती है .....क्या आप कभी अपने से मिले ......नही तो कहिये जल्दी से शुभ रात्रि