शहर में आज फिर एक भूखा,
बिना रोटी के सो जाएगा।
शहर में रोटी तो थी पर,
वह भला उसे कहां पाएगा?
फुर्सत ही कहां है किसी को,
अपनी भूख के बाद,
दूसरे भूखे को ढूंढने की ।
बस घर से एक हाथ निकलेगा,
और एक रोटी का टुकड़ा,
सड़क पर फेंक दिया जाएगा।
पैसे से खरीदी गई,
रोटी का मोल भी कोई,
कैसे समझे ?
किसी किसान के पसीने से,
धरती फोड़ कर निकलने वाले,
दाने का दर्द कौन समझ पाएगा ?
समय ही कहां है किसी के पास,
कि शहर में कोई आज,
फिर से भूखा सो जाएगा?
उस घर के दरवाजे को,
ताकता हुआ जानवर,
फिर भी एक रोटी का जाएगा !
क्योंकि वह मनुष्य की,
भावना को समझने लगा है।
इसीलिए वह एक टकटकी लगाकर,
घर के सामने जागने लगा है।
वह जानता है कि हाथ से,
रोटी फेंकी तो जा सकती हैं।
पर किसी भूखे को,
खिलाई नहीं जा सकती हैं!
जिस रोटी के न मिलने पर,
उसने भगवान के आगे ,
आंसू गिरा कर पूछा था ?
कि मैं ऐसा कौन सा अपराध किया है ?
जो मेरे हाथ में एक,
रोटी भी नहीं आई है ।
पर पीड़ा के पार आज ,
जब उसके हाथ में रोटी है ,
तो उसे यह बात ,
स्वयं कहां समझ में आई है?
किसान के पसीने से निकलने वाले,
दानों में सिर्फ पैसे का,
अहंकार नहीं होता है ।
उसके एक छोटे से प्रयास से,
शहर का कोई भूखा भी,
रोटी खाकर सोता है ।
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में जाने वाले,
एक बार भी भगवान को,
सड़क के किनारे नहीं देख पाते हैं ।
जहां भगवान नहीं है,
वहां माथा टेक कर चले आते हैं ।
भूख मांगा करता है कि,
मुझे भूख लगी है एक रोटी दे दो !
आज इस तड़पते दिल से,
थोड़ा सा सच्चा आशीर्वाद ले लो !
पर घर पहुंचने की जल्दी में,
कोई कहां सोच पाता है कि,
उसके अनसुने पन से शहर में ,
एक भूखा सड़क पर,
पड़ी रोटी भी नहीं पाता है?
भगवान को पाने का ,
सरल सा तरीका,
तुम्हारे हाथ में आया था ,
पर तब तुमने भूखे को ,
कहां खाना खिलाया था ?
एक भूखा शहर में,
पानी पीकर फिर से सो लिया है ।
मानव की संस्कृति में ,
खेतों से निकली रोटी का टुकड़ा किसी,
गाय किसी कुत्ते के साथ हो लिया है।
डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"

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