Monday, November 24, 2025

हर दर्द छुपा कर, मुस्कुराना था - आलोक चांटिया "रजनीश"

 

हर दर्द छुपा कर,
मुस्कुराना था ।
अच्छा होना तो ,
सिर्फ एक बहाना था।
सुबह शाम रात के बदलते,
रहने की तरह न जाने,
कितनों को मेरे ,
जीवन में आना था ।
ना जाने कितनों को ,
मेरे जीवन से जाना था ।
किसी के साथ,
रुकने का मन था ।
किसी को छोड़ जाना था। 

किसी का दरवाजा की तरफ,

 देखकर इंतजार करना था।

 किसी को सन्नाटे ,
रास्तों पर ढूंढ जाना था।
आसान था किसी के लिए,
यह कह देना कि,
झूठ है सब रिश्ता,
लगता है ऐसा सामानों की तरफ ,
दुनिया में सब कुछ,
कितना है सस्ता ।
पर भला किसे यह सब ,
अब बताना था ।
सच को झूठ ,
झूठ को सच कैसे बनाते हैं?
यही तो जाना था ।
जिनको अपना माना था,
वह सब झूठे निकलते चले गए ,
जिनको झूठा समझा था ,
वह अपने होते चले गए।
इस जादू के खेल को,
इस संसार में मैंने ,
पहली बार पहचाना था। 

आंखों से आंसू नहीं ,
सिर्फ जोर से खिल खिलाना था ।
क्योंकि हर दर्द को,
छुपा कर जी जाना था।
हंसना तो आज भी ,
एक बहाना था ।
क्यों है जीवन में कुछ,
ऐसा दर्द नहीं है,
बताते क्यों हैं कहता क्या,
जब हर किसी को दर्द से,
हाथ मिले हुए ही पाना था।
अपना दर्द दिखा कर ,
अपना प्रतिकर्षण,
क्यों बढ़ाना था ।
इसीलिए चुपचाप हर किसी को, 

देखकर मुस्कुराना था।
मैं एक अच्छा आदमी नहीं हूं ,
यही बताना था ।
पर इतना साफ सुनकर भी,
कोई कहां सच मान पाता है?
बचपन से जवानी बुढ़ापे तक,
झूठ को लेकर ही ,
ज्यादातर जीता है हर व्यक्ति,
इसीलिए सच को सच ,
कैसे मान पाना था?
चुपचाप मुस्कुराते रहना,
तो एक बहाना था ,
मुझे सिर्फ अपने भीतर,
एक दर्द छुपाना था।
डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"

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