Friday, November 14, 2025

रिश्ते का हिसाब -डॉ आलोक चांटिया रजनीश

 हर किसी के पास अपने

रिश्तों का हिसाब होता है।

दर्द-शिकायत का

एक कारवां भी बेहिसाब होता है।


जरा-से शब्द डोलते नहीं,

कि अचानक भीतर

एक हाहाकार होता है।


कोई पूछता है—

“तुमने मेरे लिए अब तक क्या किया?”

कोई सवाल करता है—

“तुमसे जुड़कर फायदा ही क्या मिला?”


क्या कभी तुमने

एक पल भी ठहरकर

मेरी ओर मुड़कर देखा?

कुछ को तो बस यही लगता है—

समय की बर्बादी से

ज़्यादा कुछ हासिल नहीं होता।


किसी को समझ पाना

वाकई मुश्किल होता है—

पर हर रिश्ते का हिसाब

ज़रूरी भी तो नहीं होता।


कुछ रिश्ते बस साथ-साथ

चलते रहने के लिए बने होते हैं;

यह हर दिल का छोटा-सा सपना होता है।

ज़रूरी नहीं कि

नापतोल कर चलें,

या किसी स्वार्थ-उद्देश्य के लिए

कभी मिलें।


बस इतना एहसास ही काफी है—

कि कोई कहीं दूर

मेरे लिए भी जी रहा है।

मिल नहीं पाता,

पर मिलने की बात

फिर भी करता है।


जब भी उससे मिलने की चर्चा आती है—

वह कहता है,

“अगली बार ज़रूर आऊंगा।

समय न भी मिला,

फिर भी कहीं से खोजकर ले आऊंगा।”


पर वह समय

आता ही नहीं।

दरवाज़ा उसकी आहट

सुन ही नहीं पाता।


और कोई चुपचाप

उस रिश्ते का इंतज़ार करता है—

जो है भी…

और नहीं भी।

जो एक झूठ भी है,

और एक सच भी।


बिना पानी के

पेड़ सूख जाता है।

बिना हवा के

दम घुट जाता है।

और फैलते हुए सन्नाटे को देखकर

कौन सच में समझ पाता है—

कि एक रिश्ता

उसका भी है,

और उससे जुड़ा

मेरा भी नाता है?


इसीलिए अक्सर

खुद से ही

एक अनकहा हिसाब चलता रहता है।

जहाँ रिश्ता न सामने होता है,

न कोई ख्वाब।

पर सवाल-जवाबों के बीच

एक एहसास—

बेहिसाब होता जाता है।


— आलोक चांटिया “रजनीश”

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