Thursday, November 6, 2025

जब वह कमरा खोलता है डॉ आलोक चांटिया रजनीश


 

जब वह थक हार कर,
अपने कमरे को खोलता है,
फिर वहां उससे ,
कोई नहीं बोलता है।
एक सन्नाटा सा पसरा रहता है,
वहां सिर्फ कुछ फोटो ,
कुछ बिखरी हुई ,
किताबें के साथ डोलता है ।
न जाने कितने दर्द ,
पूरे दिन उसके फोन पर बहे।
लेकिन वह अपना दर्द, 

आलोक किससे कहे ।
रात दिन सब अपनी ही,
खुशी को ढूंढने की,
कोशिश करते रहे हैं ।
जिसे देखिए उसने ही बताया,
संघर्ष रोटी घर दर्द विवाह,
न जाने सबने सहे हैं।
बस इन्हीं सबको अब,
बहुत पीछे छोड़ आया है, 

इसीलिए इस भीड़ में उसने, 

एक भी ऐसा नहीं पाया है ,
जो यह सोचकर हिम्मत जुटा लेता ,
कि जिसको हम लोग दर्द का रहे हैं,
उसके बिना यह कैसे ,
हर पल रह रहे हैं ।
इसीलिए कमरे का सन्नाटा उसके,
दिल के सन्नाटे से जुड़कर, 

एक संगीत पैदा कर जाता है।
जब अकेलेपन का स्वर, 

अपने सुरों में एक गीत गाता है ।
पूरे शहर का दर्द सुनकर ,
जब लौट के कमरे पर आता है,
तो सुकून के रास्तों में ,

सिर्फ वह अपने साथ,
तन मन और सांसों को पाता है ।
क्योंकि वह जानता है कि, 

यही वह है जिससे ,
उसका सच्चा नाता है ।
यह जब तक रहेंगे,
तभी तक लोग भी उसे, 

जानने की कोशिश करते रहेंगे ।
अपने हर दर्द को बताने की,

 जताने की बात करते रहेंगे।
धड़कते दिल में अपने,
खून के अलावा सबके दर्द समेटकर,
फिर वह शहर से निकलकर ,

जब भी अपने कमरे पर आता है ,
और अपने अकेलेपन का ताला खोलता है ।
तो सच मानिए उस समय, 

उससे कोई नहीं बोलता है।
सिर्फ कमरे की दीवारें जो खुद,
अकेलेपन में नीरस जीवन के साथ ,
उसका इंतजार करती रहती हैं ।
वही मुस्कुरा कर ,
सिर्फ यह कहती है ।
कि अब कुछ देर दीवारों को भी ,
किसी के होने का एहसास तो रहेगा,
कोई इस कमरे को,
तनहा तो नहीं रहेगा ।
और वह मुस्कुरा कर,
उन दीवारों की तनहाई को, 

दूर करने में उलझ जाता है।
भला कमरा भी उसके, 

अकेलेपन को कहां समझ पाता है ?
उसके आने से विस्थापित होती हुई ,
शरीर से उस हवा का दबाव, 

कमरे में कुछ हलचल कर जाता है ।
एक रखा हुआ कागज ,
अपने आप गिर जाता है ।
एक दरवाजा उस दबाव से, 

अपने आप बंद हो जाता है।
बस एक अकेले आदमी के कमरे में,
आने से इतना ही हो पाता है।
दर्द सुनने वाले का दर्द ,
कोई नहीं जान पाता है ।
धूल पड़े हुए चूल्हे की,
आग कब जली थी ?
कोई जानना भी कहां चाहता है ?
सबके अपने जीवन का, 

अपना ही अलग-अलग रायता है ।
गैस वाला भी समझ नहीं पाता है ,
कि इस घर में आदमी रहता है ,
या कोई भगवान,
जिसका भूख से क्यों नहीं कोई नाता है।
वह कभी कबार पूछ भी लेता है,
भैया क्या गैस की कोई जरूरत नहीं है?
क्या आपके घर में ,
आपके सिवा कोई नहीं है?
यह सुनकर वह,

 मुस्कुराकर रह जाता है ।
फिर फोटो में रहती हुई, 

अपनी मां की तरफ देख लेता है ।
सूनी आंखों से जीवन का,

 अर्थ जता देता है ।
जिसमें उसका दर्द खो जाता है ,
और लोगों का दर्द रह जाता है ,
जिसको मिटाने का सपना, 

लेकर उसे चलना है ।
कल के सूरज के साथ फिर से ,
उसे भगवान से मिलना है।
अभी तो सूरज की तलाश में, 

दौड़ती रात से उसे मिलना है।
अभी उसे थोड़ा और चलना है।

आलोक चांटिया रजनीश

No comments:

Post a Comment