थक हार कर अंधेरे का,
सहारा लेना ही पड़ता है ।
कुछ ना समझ आने पर,
आंख बंद करना ही पड़ता है।
मान लेना पड़ता है कि कल सुबह,
फिर से अपने लोगों को मैं देख पाऊंगा ।
जब आंख खोल कर,
सभी के सामने आऊंगा।
इतने विश्वास के बाद भी कोई,
कह नहीं पाता कि,
सभी को भगवान पर विश्वास रहता है।
और जिसे भी देखो वह,
यह पूछता रहता है ।
भगवान कहां रहता है?
भगवान को देखा किसने है?
चरम सुख की चाहत का यह प्रश्न,
जीवन में हर तरफ चल रहा है।
जिसे भी देखिये वह,
सत्य की खोज कर रहा है।
मुट्ठी बंद करना मुट्ठी खोलकर देखना,
सुबह से शाम तक ,
आदमी का प्रयास रह जाता है।
मनचाहा ना पाने पर कोई अपने,
घर के दरवाजों में सिमट जाता है।
कोई सब कुछ कल पर छोड़कर ,
सो जाता है ।
कल को देखने का सपना,
पूरा होगा या अधूरा रह जाएगा,
यह सिर्फ और सिर्फ समय बताता है ।
फिर भी समय का आभास, उसकी महत्ता,
कहां कोई समझ पाता है?
रोज रात को आंख बंद करके,
सोने वाला यह एहसास दिखा जाता है ,
अपनों के साथ होने का आभास,
दूसरे दिन की सुबह में लेकर कोई,
चुपचाप गहरी नींद में खो जाता है।
आदमी हमेशा किसी और के सहारे,
जीता रहा है जीता रहेगा,
यह कभी कह नहीं पाता है।
आलोक चांटिया "रजनीश"

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