मेरी नींद आज न जाने,
कहां भाग गई है ।
शायद एक बार फिर,
मेरी आत्मा जाग गई है।
मदहोश जब बेखबर होकर,
दुनिया से मैं सो जाता हूं।
किसको बताऊं सपनों में,
मैं किसे पाता हूं ?
अक्सर मेरी मां आकर,
अभी भी मुझे समझा जाती है ।
क्या तुम्हें यह न्यूनतम सी बात भी,
समझ में नहीं आती है!
फस जाते हो बार-बार,
उन्हीं भंवर जाल में,
तुम क्यों इस तरह।
जबकि रास्ता सिर्फ एक ही सच है,
क्यों नहीं मिलते तुम उस तरह ।
इस तरह मुट्ठी को बार-बार खोलकर,
देखना अच्छी बात नहीं है।
अंधेरे से भागना,
कोई सच्ची बात नहीं है।
पकड़ कर कब तक रखोगे?
प्रकाश को इस भ्रम में,
कि वह मुट्ठी में बंद हो जाता है ?
जब सब छोड़ देते हो,
तब खुले हाथों में ही वह रह पाता है ।
बंद मुट्ठी तो अंधेरों का सागर है ।
पकड़ने के लिए दौड़ना ही,
एक भवसागर है ।
इसलिए चुपचाप जिस आत्मा को,
शरीर में बंद किया है ।
उसको ही सच मानकर चलते रहना,
और किसी भी चीज को बार-बार,
अपना कहने के भ्रम में ना रहना ।
यह दुनिया ना कल तुम्हारी थी।
ना आज है ना कल रहेगी।
शरीर भी यही रह जाएगा।
सड जाएगा गल जाएगा।
कोई को याद भी नहीं रह जाएगा।
खत्म होने से पहले उस शरीर को,
तुम आत्मा के साथ जितना घिस डालोगे।
उतना ही सुंदर सुख शांति का रत्न,
तुम अपनी उस यात्रा में पा डालोगे ।
इसलिए जब भी तुम्हारी नींद,
तुम्हारे पास से भाग जाए।
और शरीर में बैठी आत्मा,
फिर से जाग जाए ।
तो समझ लेना तुमने एक बार फिर से ,
सच को समझ लिया है।
मानव होने का अर्थ सच में ,
इस पृथ्वी को दिया है आलोक चांटिया "रजनीश"

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