Tuesday, September 2, 2025

सच तो बस यही है आलोक चांटिया "रजनीश"


 हर कोई निकलते बैठते,

सोते जागते चलते गिरते,

 यही समझा कर निकल जाता है।
काम अच्छा करते रहो,
यही काम सबके आता है। 

पर यही सोचकर गंगा भी, 

गंगोत्री से निकलकर लोगों को,
अमर करने चली आई।

 बदले में सिर्फ और सिर्फ, 

अपने आंचल को मैला करने के सिवा,
यहां क्या वह पाई ?
सांस बनकर मलय समीर भी बिना,
किसी लाभ हानि के लोगों के,
जीवन से होकर बहने लगी सांस बनकर।
पर उसकी अच्छे कामों को लोगों ने,
लौटाया है प्रदूषण बनकर।
मिट्टी भी तो यही चाहती है रही,
कि वहां अपने अंदर से सृजन की,
देवी बनकर रह जाए।

 हरियाली का एक ,
सुंदर सा अर्थ बन जाए।
पर बदले में उसके गोद में सिर्फ,
बंजर होना सूखा होना, 

रेगिस्तान बन जाना ही क्यों आए ?
इस भ्रम में रखकर ही शायद,
प्रकृति में हम अच्छे को अच्छा बनाकर,
रखने का प्रयास करते रहते हैं ।
पशु जगत में आदमी को, 

पशु से थोड़ा ऊपर लाने का, 

प्रयास करते रहते हैं।
बस यही एक दर्शन इस, 

जीवन का सच बन जाता है। 

वरना गंगा वायु पानी मिट्टी, 

सभी के हिस्से में क्या आता है ?
भला यह कौन नहीं जानता है !
और कौन इस कड़वे सच को कह पाता है
आलोक चांटिया "रजनीश"


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