Thursday, September 11, 2025

संबंधों का रेगिस्तान -आलोक चांटिया "रजनीश"


 संबंधों का रेगिस्तान बड़ा है,

 अंतहीन इंसान सामने खड़ा है ।

है भी और नहीं भी है,

किसी तरह से मेरे लिए।

 उजाला सा संबंधों का वीरान पड़ा है ।

हर कोई जीता है बस रात दिन,

हर पल यही सोच कर।

जी लूंगा मैं भी थोड़ा संबंधों को,

किसी के साथ जोड़कर।

पर बंद मुट्ठी में अंधेरा ही आता है।

जब कोई चुपचाप संबंधों को,

ले जाता है नोच कर ।

जितनी भी हरियाली छाया संबंधों की,

सोच कर आगे बढ़ता रहता है ।

कोई भी तप्ती बालू की रेत में,

तन जलता है मन जलता है, 

जल जाते हैं पैर,

बस यही सोचकर ।

संबंधों का रेगिस्तान ही,

क्यों बढ़ रहा है?

क्यों आदमी जीकर,

इसके साथ भी मर रहा है।

इसके न होने पर भी खुश, 

कहां रह पा रहा था ?

इसको बनाकर भी ,

शहर क्यों जल जा रहा था? 

संबंध कश्मीर से कन्याकुमारी की तरह,

फैल गए हैं ।

फिर भी रेगिस्तान में एक बूंद,

पानी को हम क्यों तरस गए हैं?

क्यों नहीं इस रेगिस्तान में कभी,

सरसता का एहसास भी आता है ?

मनुष्य पशु जगत में संबंधों का,

बोझ लेकर कहां से आता है?

उसे बस संबंधों से थोड़ी सी ठंडक ,

ढलते सूरज के साथ ,

रात के अंधेरे में,

ठंडी होती रेत में मिल भी जाती है ।

पर संबंधों का रेगिस्तान, 

उजाला चाहता है ।

और उजाले में सिर्फ और सिर्फ,

फिर वही गर्मी आई है जिससे ,

बचने का तरीका ढूंढा जाता है ।

समझ में नहीं आता प्रकृति में,

यह रेगिस्तान क्यों बनाया जाता है ?

संबंधों का गान क्यों गया जाता है ?

आलोक चांटिया "रजनीश"


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