Monday, September 8, 2025

जब मुझको जाना ही है एक दिन,- आलोक चांटिया रजनीश

जब मुझको जाना ही है एक दिन,

तो कब तक बटोरता रहूं?

जो अपने मुट्ठी में इकट्ठा कर लिया है ,

उसको किसी से तो कहूं!

पर हर कोई इकट्ठा करने में ही,

लगा दिखाई देता है।

फिर उससे मैं रुकने के लिए कैसे कहूं ?

मालूम सभी को है कि दौड़ते दौड़ते,

एक दिन किनारा आ जाएगा ।

और लौट के सिवा,

फिर कुछ ना रह पाएगा।

फिर भी कोई ना सुनना चाहता है,

ना भूलना चाहता है, 

ना गुनना चाहता है।

बस एक जिद है सब कुछ, 

इकट्ठा कर लेने की ।

इसी में डूब जाना चाहता है।

 शायद यही कारण है कि एक दिन,

जब वह पलट कर देखता है,

तो दूर तक एक सन्नाटे के सिवा,

कुछ भी नहीं पाता है ।

और स्वयं गूंगा हो जाता है, 

यह बता नहीं पाता है कि वह,

इस संसार में क्यों आता है?

मनुष्य इकट्ठा करने में एक चिड़िया,

क्यों नहीं बन पाता है?

जो सिर्फ सुबह उड़कर शाम को अपने,

घोंसले में लौट आई है ।

चोंच में दबे हुए भूख के ज्ञान से सिर्फ,

उसी दिन का हिसाब लगाती है ।

इस ज्ञान को मानव,

क्यों नहीं समझ पाता है ?


वह चींटी की तरह इकट्ठा करने में ही,

क्यों लगा रह जाता है ?

और अचानक एक दिन, 

कुचल दिया जाता है ।

मसल दिया जाता है,

जो उसने इकट्ठा किया था, 

वह कहां किसी को दिखा पाता है?

कहां किसी को बता पता है?

मानव मानव होने के अर्थ को ,

इस पृथ्वी पर कहां समझा पाता है?

एक चिड़िया से बौना और, 

एक चींटी का जीवन,

लेकर चला जाता है ।

इकट्ठा करने की जुगत में, 

आखिर मानव किस अनंत काल के लिए,

इस संसार में आता है ?

आलोक चांटिया "रजनीश"


 

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