Monday, June 30, 2025

एक बूंद का प्रेम -आलोक चांटिया "रजनीश"

 एक बूंद का प्रेम

बहुत ही आसान सा लगता है
यह कह देना कि मैं
किसी से प्रेम करता हूं
मैं उसके लिए जीवन से दूर
बस हर पल मरता हूं
लेकिन सच यह है कि
प्रेम का रास्ता बहुत लंबा है
पानी की एक बूंद पृथ्वी से
मिलाने के लिए बादल
ना जाने कितने जतन करता है
समुद्र से गर्म हवाओं के सहारे
पानी इकट्ठा करता है
अपने अंदर समेट लेता है
और फिर अपनों से ही टकराकर
जमीन पर बरस जाता है
इतनी दूर से आने वाली एक बूंद का
स्वागत करने के लिए पृथ्वी को
प्रेम का अर्थ समझ में आता है
वह चहक उठती है
अपनी सोंधी सोंधी महक के साथ
जब बादलों के सहारे बढ़कर
पकड़ लेती है बूंद उसका हाथ
कई बार प्रेम की इस गुनगुनाहट को
कोई जब सुनने बीच में खड़ा हो जाता है
तो पानी की बूंद से
सराबोर और हो जाता है
प्रेम के इस दर्शन को भला
कोई कहां समझ पाता है
दूर से आने वाली बूंद को जब हम
बादल और धरती के बीच खड़े होकर समेट लेते हैं
तभी तो प्रेम की मदहोशी को
अपने भीतर जन्म दे देते हैं
क्या सच में हम प्रेम को आज भी
थोड़ा सा समझ लेते हैं
आलोक चांटिया "रजनीश"

मानव होने का सच आलोक चांटिया "रजनीश"

 मानव होने का सच


एक मनुष्य होने की खुशी

पशु जगत में किसे नहीं होती है

लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है

जब पशु जगत की बात झूठी होती है

आदमी स्वयं को पशु से ज्यादा

अच्छा कहीं नहीं पाता है

क्योंकि उसके हिस्से में निराशा दुख

अवसाद और भूख का रास्ता भी आता है

वह जान ही नहीं पाता

मनुष्य बनकर उसने क्या पा लिया है

फिर से एक कल की चिंता ने

उसे बीमार कर दिया है

अब मानव मानव होकर खुश नहीं रहता है

हर पल हर बात पर डरा डरा सा रहता है

बस किसी भी बात को पूछने पर

यही कहता रहता है

सब भगवान की मर्जी है

देखो भगवान क्या चाहता है

दिन के उजाले में भी रात के अंधेरे में रहता है

अब वह यह समझ ही नहीं पा रहा है

कि पशु जगत में उसे आदमी होने का

भ्रम क्यों चलाया गया

जब एक जानवर से बेहतर

उसे कहीं नहीं पाया गया

यह सच है कि कल अच्छे दिन लाने के चक्कर में

उसने प्रकृति से इतना ज्यादा खेल कर डाला है

कि आज उसके मुट्ठी में

उसका ही जीवन उसका हाला है

जिससे निकलने के लिए उसने न जाने कितने

आविष्कार कर डाले हैं

अपने चारों तरफ सुख समृद्धि

सभ्यता के न जाने कितने भ्रमजाल फैला डाले हैं

पर इन सब से उसकी मुट्ठी में

अक्सर अंधेरा ही रह जाता है

और कल अच्छा होगा इसी बात को

वह बड़े बुजुर्ग सरकार से कहता पाता है

पर जीवन तो जल्दी-जल्दी

दौड़कर किनारे पर जा रहा है

मानव जरा सोच के देख

तेरे हाथ में क्या आ रहा है

क्या अभी भी तू पशु जगत में

अपने को सर्वश्रेष्ठ का पा रहा है

या सिर्फ एक प्राणी की एक तरह निरीह होकर

कल की कल्पना में जीता जा रहा है

बस किसी तरह जीता जा रहा है

आलोक चांटिया "रजनीश"

रात की हया को कहां कोई समझ पाया है- आलोक चांटिया "रजनीश"

 मोहब्बत



रात की हया को कहां कोई समझ पाया है

जब भी उजाले पर उसका मन आया है

तो तुरंत उसका इजहार करने का

उसने कभी मन ही नहीं बनाया है

उसने भी इंतजार किया है तमाम

उन खुली हुई आंखों का जो रात को

आहिस्ता आहिस्ता आते हुए देख रहे हैं

और न जाने कितनी अल्फाज उनकी

आंखों में तैरते बिन कहे हैं

इसीलिए रात चुपचाप अपनी सारी

हया को बनाए रखकर चलती रहती है

बस दूर कहीं उसकी आहट में मचलती रहती है

जब जान लेती है की खुली हुई आंखें

अब नींद के गहरे आगोश में समा गई है

और उसके मोहब्बत के इजहार की बारी आ गई है

तो वह बढ़कर उजाले से लिपट जाती है

अपनी सारी अंधेरे की बातें उजाले में समा जाती है

और उजाले से लिपटकर कुछ इस तरह खो जाती है

कि जब दुनिया में हर किसी की

आंख दोबारा खुल पाती है

तो उसे अंधेरे की कोई बात नजर नहीं आती है

मोहब्बत में यूं समा जाना उसी में खो जाना

कहां कोई अंधेरे से सीख पाया है

उजाले के हिस्से में रात का

कितना खूबसूरत वह लम्हा आया है

जब दोनों मिलते हैं और रात को जाती है

क्या आज भी हम में से किसी को

इस तरह शर्म हया के साथ मोहब्बत की

बात साथ चलने की कहीं समझ में आती है

आलोक चांटिया "रजनीश"


मिट्टी से जुड़ना सीखो आलोक चांटिया "रजनीश"


 मिट्टी से जुड़ना सीखो


मिट्टी का क्या है कोई भी

बीज उसमें बो दिया जाता है

मिट्टी की उष्णता के आगे वह

फिर क्या कुछ कर पाता है

उसके पास सिर्फ और सिर्फ

एक यही रास्ता शेष बचता है

कि बीच ने अंदर जो भी आज तक

उसने छुपा कर रखा था

उसे मिट्टी के दरवाजे को तोड़कर

दुनिया में अपने को रचता बसता है

मिट्टी को भी कहां एहसास होता है

किसी भी दर्द का जब

एक बीज उसके अंदर समाता है

फिर उसी के मिट्टी को फोड़ कर

तोड़कर वह इस संसार में बाहर आता है

मिट्टी तो बस खुश हो जाती है

यह सोच कर कि उसे बीज की जड़

आज भी उससे जुड़ी हुई है

बीज ने जिस पौधे को खड़ा किया है

वह मिट्टी के साथ मिली हुई है

बीज को भी कब दुख होता है

कि उसका अस्तित्व मिट्टी के

गहन अंधकार में समाप्त हो गया है

वह तो मिट्टी के अंदर उसकी उष्णता से

बस उसी का होकर रह गया है

वह दुनिया में खुद नहीं

बाहर आना चाहता है

मिट्टी और मिट्टी के साथ रहने का सच

वह दुनिया को सिर्फ बताना चाहता है

इसीलिए एक दिन मिट्टी को तोड़कर

वह पौधे के रूप में बाहर आना चाहता है

और मिट्टी मैं सृजन के कौन से सुर छिपे हुए थे

वह दुनिया को दिखाना चाहता है

भला कौन नहीं मिट्टी और बीज के

इस दर्शन को समझ पाता है

तभी तो कोई एक पौधे का फल फूल

और कोई एक पेड़ की छाया के तले चला आता है

सच बस यही इस दुनिया में रह जाता है

कि अपने अंदर के हर वैभव

गुण का प्रदर्शन वही कर पाता है

जो बीज की तरह एक दिन

अपनी मिट्टी से पूरा जुड़ जाता है

आलोक चांटिया "रजनीश"


Monday, June 23, 2025

मानव का पतन: एक चेतावनी" ✍️ डॉ. आलोक चांटिया “रजनीश”

 "मानव का पतन: एक चेतावनी"


✍️ डॉ. आलोक चांटिया “रजनीश”

(समाजशास्त्री, लेखक व सामाजिक चिंतक)


चींटी जानती है —

अगर वह धीरे-धीरे, संभलकर चलती रही

तो शाम तक अपने घर लौट आएगी।


पर इंसान…

सभ्यता और संस्कृति की अंधी दौड़ में

इतना उलझ चुका है

कि अब उसे भरोसा नहीं

कि वह शाम तक ज़िंदा घर लौटेगा भी या नहीं।


कभी जानवरों से डरता था इंसान,

आज जानवर इंसान से डरता है।

कभी जंगल में

एक शेर पल में मनुष्य का अंत कर देता था,

अब शेर खुद इंसान के हाथों

तिल-तिल कर मर रहा है।


इंसान अब जानवर नहीं मारता,

इंसान अब इंसान को खा रहा है।


जो आदमी सुबह घर से निकलता है

सपनों और संघर्षों के साथ,

वो हर मोड़ पर डरता है—

कहीं कोई लूट न हो जाए,

कहीं कोई हत्या न हो जाए,

कहीं कोई सड़क, ट्रेन, या बम

उसे लील न जाए।


अब शव नहीं मिलते,

बस DNA टेस्ट से अपनों को पहचाना जाता है।


विज्ञान की ऊँचाई

इंसान को नहीं,

बस उसके मांस और हड्डी के बचे हिस्सों को

घर पहुँचाने में काम आती है।


इंसान ने जंगल काट डाले,

नस्लें मिटा दीं,

और अब अपने विनाश की ओर

खुद ही अग्रसर है।


उसने रावण की तरह जीना चुना है

पर चाहता है कि मरते समय उसे

राम की तरह सम्मान मिले।


वह ईश्वर नहीं बनना चाहता,

ना इंसान।

वह राक्षस बनकर जीना चाहता है—

शब्दों में नहीं, कर्मों में।


अब कोई

संस्कृति नहीं रचना चाहता,

कोई

मानवता नहीं बचाना चाहता।


वह बस

अपने भीतर के दानव को

पालना-पोसना चाहता है।

और जब ये दानव

उसे ही खा जाएगा,

तो वो भी नहीं कह पाएगा

कि वह कभी इंसान था।

Sunday, June 22, 2025

🗣️ मानव की हार – एक संस्कृति की जीत या विनाश? डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"

 🗣️ मानव की हार – एक संस्कृति की जीत या विनाश?

डॉक्टर आलोक चांटिया "रजनीश"

मानव ने खुद को पशु जगत से अलग किया,

पर क्या पाया?

हाँ, एक अद्भुत संस्कृति बनाई—

पर  संस्कृति में इतना खो गया

कि बाकी सब कुछ,

खुद को भी, खो बैठा।


पेड़ काटे,

जंगल उजाड़े,

सीमेंट की इमारतें खड़ी कीं—

और अब उन्हीं के साये में

तिल-तिल कर जल रहा है।


जिस ऑक्सीजन से जीवन की परिभाषा बनी,

उसे भी इतना ज़हरीला बना दिया

कि अब हर सांस…

सज़ा जैसी लगती है।


धरती पर पहिए दौड़े,

आसमान में मिसाइलें उड़ीं,

मनुष्य उड़ता गया…

पर गिरता रहा—

नैतिकता में, संवेदना में, रिश्तों में।


आज वह संस्कृति का निर्माता नहीं—

एक स्वार्थी शासक बन बैठा है,

जो न समझ पाया जीवन का अर्थ,

न अपने ही बनाये राज्य का मूल्य।


राज्य!

जिसे सुरक्षा देनी थी,

अब वही सबसे बड़ा शिकारी बन गया है।

राज्य जो युद्ध चाहता है,

पर जनता बस जीना चाहती है।


और आदमी…

अब आदमी का ही दुश्मन बन गया है।

शेर-भालू नहीं मारते अब,

बल्कि आदमी, आदमी को ही मार देता है।


संस्कृति के नाम पर,

हमने जीवन को जंजीरों में जकड़ दिया है।

सांप बन गए हैं,

फुफकारते नहीं, बस डसते हैं—

चुपचाप, अपनों को।


कौन चाहता है कि उसके घर पर बम गिरें?

कौन चाहता है कि उसका भविष्य

सिर्फ मलबा बन जाए?


फिर भी,

राज्य चलते हैं…

अपने ‘राष्ट्रीय हित’ में

दूसरों की बर्बादी लिखते हैं।


कुछ ही लोग हैं जिन्हें जीवन का अर्थ समझ आता है,

बाकी चींटियों की तरह कुचले जाते हैं—

बिना नाम, बिना खबर, बिना मातम।


तो क्या यही है

मानव होने की परिभाषा?

क्या हम इसलिए पशु से अलग हुए थे?

कि एक दिन अपनी ही बनाई पृथ्वी

हम खुद नष्ट कर डालें?


अब सवाल है—

ये जो सब हो रहा है,

ये संकेत है किसी अंधेरे युग के आने का

या शायद…

किसी नई सुबह का?


तय हमें करना है।


Saturday, June 21, 2025

जीवन भी बहुत अजीब सा हो गया है- आलोक चांटिया "रजनीश"

 

जीवन भी बहुत
अजीब सा हो गया है
किसी से कोई काम कह दो
तो वह अपने आप ही
बेतरतीब सा हो गया है
सभी को लगता है
कि कोई किसी से कुछ
इसलिए कह रहा है
क्योंकि वह कुछ उससे
पाना चाहता है
और इसी को सच मानकर
कोई भी किसी के पास
नहीं आना चाहता है
यह मानकर कि कुछ
कहने के पीछे सिर्फ
पैसे की बात कही जा रही है
जिसे देखिए उसके द्वारा
बैंक अकाउंट में एक छोटी सी धनराशि भेजी जा रही है
कोई नहीं समझ पाता
दो मनुष्यों का साथ बैठना
ज्यादा बड़ी बात होनी चाहिए
पैसे का क्या है वह तो
भीख मांगने से भी
किसी को भी मिल जानी चाहिए रिश्ते साथ-साथ चलना
और किसी काम को दूर तक
ले जाने के लिए
कोई आपको बुलाना चाहता है
वह सिर्फ आपसे कुछ रुपए
पाकर अकेले अपने
कार्यक्रम में खड़े
नहीं रहना चाहता है
पर मनुष्य आज पैसे में
इस कदर से डूब गया है
कि वह आदमी के पास
बैठने से ही उठ गया है
अब हर आदमी अकेला
खड़ा होकर सोशल मीडिया पर अपना जन्मदिन मृत्यु
कार्यक्रम सब मना लेता है
और वहीं पर दुनिया का
हर आदमी उसे शुभकामनाएं
सुख दुख संदेश दे देता है
भला कोई कहां अब
मानव होने के अर्थ में
किसी मानव को कंधा देता है
किसी का साथ देता है
बस अपने जीवन के अर्थ को
वह खुद ही समझता है
और खुद ही उसे जान लेता है
यह एक अजीब सा दौर
इस दुनिया में चल रहा है
आदमी तो सभी जगह
दिखाई दे रहे हैं
पर अब आदमी कहीं नहीं
मिल रहा है
आलोक चांटिया "रजनीश"

Sunday, June 8, 2025

शब्द निकलना नहीं चाहते हैं आलोक चांटिया "रजनीश"

 

हर पल ऐसा लगता है
कि अंदर कुछ ऐसा चल रहा है
जो निकालना चाहता है
कहना चाहता है पर न जाने क्यों
उस उलझन को सामने लाने के
शब्द नहीं मिल पाते हैं
और एक दिन आदमी के साथ ही
वह अंदर ही अंदर दफन होकर
इस दुनिया से भी चले जाते हैं
पता नहीं क्यों ऐसा लगता है
कि शब्द भी अपने सृजन को
लेकर बहुत गंभीर होते हैं
जल्दी दिमाग से निकलने नहीं चाहते हैं
जब तक वह अपने अनुसार
अपने को नहीं पाते हैं
शब्द भी विकलांग होते हैं
शब्द भी अंधे होते हैं
शब्द भी बहरे होते हैं
शब्द भी गूंगे होते हैं
जब वहां समय से पहले बिना सोचे समझे
दुनिया में निकाल दिए जाते हैं
शायद इसीलिए वह चाहते हैं
कि अपना प्रजनन काल पूरा करके ही
वह मस्तिष्क के रास्तों से होकर
दुनिया के सामने ले जाएं
ताकि शब्दों की किलकारी में
हम पूरा-पूरा आनंद पाये
क्योंकि कई बार अधपके खाने की तरह
शब्द बाहर तो निकल आते हैं
पर भला वह किसी का ध्यान भी
कहां आकर्षित कर पाते हैं
पड़े रहते हैं सड जाते हैं
फेंक दिए जाते हैं कोने में
और कोई भी नहीं मिलता
उनके लिए एक पल भी रोने में
इसीलिए शब्द भी अपने अपमान के लिए
सिर्फ बाहर नहीं निकालना चाहते हैं
वह भी अपने मानवाधिकार के लिए
पुरी जी जान से लड़ना चाहते हैं
अपने को स्थापित करना चाहते हैं
अपनी गरिमा को पाना चाहते हैं
और अंतिम समय तक ढूंढते हैं
उस किसी एक मिट्टी को जिसके अंदर
वह रहकर अपने अंदर का
अंकुरण फोड़ पाते हैं
और दुनिया को अपने होने का
सुंदर सा एहसास करा पाते हैं
पर इतना करने के बाद भी
शब्दों का भी जातिवाद चलने लगता है
कोई हल्के शब्द होते हैं
कोई अच्छे शब्द होते हैं
कोई निम्न शब्द होते हैं
कोई उच्च शब्द होते हैं
कोई गरिमा पूर्ण शब्द होते हैं
क्योंकि किस मिट्टी से होकर
कौन सा शब्द अपने को बना पाया है
यहां तथ्य ही सबसे महत्वपूर्ण
इस दुनिया में होता आया है
इसीलिए कहा भी गया है कोई
कि बोलने से पहले कई बार
किसी को भी सोच लेना चाहिए
क्योंकि शब्द तो निकल आएंगे
पर कम से कम उनके लिए
एक आदत अच्छा ग्राहक तो पाइये
इसीलिए कई बार लोग शब्द
पैदा करने के बजाय बच्चा चोर
की तरह शब्द चुराने लगते हैं
और अपना काम यूं ही चलाने लगते हैं
शब्द का यह दर्द या उसके जीवन के
आकार का यह मर्म हम सब
जब भी समझ जाएंगे
शब्दों से ही इस दुनिया को एक स्वर्ग
और किसी के लिए
जीने का अर्थ बना जाएंगे
आलोक चांटिया "रजनीश"


Thursday, June 5, 2025

जैसे ही शाम को घड़ी छह बजाती है- आलोक चांटिया "रजनीश"

 

जैसे ही शाम को घड़ी छह बजाती है
मुझे मेरी मां तेरी याद आती है
मैं दौड़ता हूं उनके कमरे की ओर
जहां मैं उन्हें हनुमान चालीसा सुनाया करता था
मुड़कर उनकी तरफ देखता भी हूं
जहां हनुमान का नाम सुनकर
एक मुस्कुराहट दौड़ा करती थी
पर अब उनके बिस्तर पर एक
सन्नाटा पसरा रहता है
और फोटो में उनका वजूद
सिर्फ यही कहता रहता है
मैं आज भी सुन रही हूं
तुम्हारे सुने हुए शब्दों को यहां
जो पांच तत्वों में विलीन हो गए हैं
तुम जिस शरीर को मां कहा करते थे
वे सब हवा पानी अग्नि
वायु पृथ्वी के हो गए हैं
बस तुम हर पल मुझे
महसूस करके देखते रहो
और अपने पथ पर प्रगति के
नए अंकुरण करते रहो
कल तुम भी चले जाओगे
इस दुनिया से
यह एक सच तुम्हें जानना होगा
तुमने कर्म के कौन बीज बोए हैं
इस सच को ही मानना होगा
इसलिए कर्म की परिभाषा में
मोह से ऊपर जाकर
तुम देखने का साहस करना आरंभ कर दो
कुरुक्षेत्र के समर में
कृष्ण की गीता अमर कर दो
जहां तक मेरा तुमसे संबंध था
वहां तक मैं तुम्हारे साथ रहती रही
मुझे अब जाना है मैं
तुमसे पल-पल यही कहती रही
इसलिए ना फोटो की ओर देखो
ना मेरे सन्नाटे से पड़े बिस्तर की ओर
अब उठो तुम पार्थ की तरह
और रचो एक सुंदर सा भोर
आलोक चांटिया "रजनीश"

Sunday, June 1, 2025

आज शमशान खुला था आलोक चांटिया "रजनीश"


 

आज शमशान खुला था

शायद फिर कोई जला था

किसी के सपने किसी का जीवन

किसी का कुछ करने का जुनून

शायद मिट्टी में मिला था

आज शमशान फिर खुला था

पूरब से चढ़ते सूरज के साथ

न जाने कितने बातों का

सिलसिला चला था

लगता था कल का सूरज

जब फिर निकलेगा

कुछ बातें पूरी होगी

कुछ नई फिर से बताई जाएगी

कुछ नई सजाई जाएगी

चांद की चांदनी में फिर से

सांसों की कहानी गाई जाएगी

पर सब कुछ आज फिर से हिला था

क्योंकि आज फिर शमशान खुला था

हर कोई भी यह चाहता था

कि सब लोग मिलकर

एक साथ चलते रहें मिलते रहे

कभी सुख में कभी दुख में

कभी दिन में कभी रात में

एक साथ खिलते रहे खिल खिलाते रहे

किसी ने अपने सपनों की बात कही थी

किसी के दर्द की बात कही थी

पर नींद में सोया फिर कहां किसको मिला था

क्योंकि आज शमशान फिर खुला था

शायद कोई फिर जला था

यह जीवन के रास्ते यूं ही चलते रहते हैं

हम एक गलतफहमी में चलते रहते हैं

हमें लगता है हम ही जान गए हैं

दुनिया को सब कुछ सब तरह से

और कल जीत लेंगे इस दुनिया के

हर रास्तों को कुछ इस तरह से

पर एक दिन सारे रास्ते गुम हो जाते हैं

पथ पर चलने वाले पग रुक जाते हैं

ऐसा ही एक सच आज फिर हमसे मिला था

आज फिर शमशान खुला था

शायद कोई फिर से जला था

आलोक चांटिया "रजनीश"