एक बूंद का प्रेम
बहुत ही आसान सा लगता है
यह कह देना कि मैं
किसी से प्रेम करता हूं
मैं उसके लिए जीवन से दूर
बस हर पल मरता हूं
लेकिन सच यह है कि
प्रेम का रास्ता बहुत लंबा है
पानी की एक बूंद पृथ्वी से
मिलाने के लिए बादल
ना जाने कितने जतन करता है
समुद्र से गर्म हवाओं के सहारे
पानी इकट्ठा करता है
अपने अंदर समेट लेता है
और फिर अपनों से ही टकराकर
जमीन पर बरस जाता है
इतनी दूर से आने वाली एक बूंद का
स्वागत करने के लिए पृथ्वी को
प्रेम का अर्थ समझ में आता है
वह चहक उठती है
अपनी सोंधी सोंधी महक के साथ
जब बादलों के सहारे बढ़कर
पकड़ लेती है बूंद उसका हाथ
कई बार प्रेम की इस गुनगुनाहट को
कोई जब सुनने बीच में खड़ा हो जाता है
तो पानी की बूंद से
सराबोर और हो जाता है
प्रेम के इस दर्शन को भला
कोई कहां समझ पाता है
दूर से आने वाली बूंद को जब हम
बादल और धरती के बीच खड़े होकर समेट लेते हैं
तभी तो प्रेम की मदहोशी को
अपने भीतर जन्म दे देते हैं
क्या सच में हम प्रेम को आज भी
थोड़ा सा समझ लेते हैं
आलोक चांटिया "रजनीश"