Tuesday, December 2, 2025

अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस और मानवाधिकार: मानव-शास्त्रीय दृष्टिकोण, सांस्कृतिक व्यवहार और वैश्विक संदर्भ** डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"


 **अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस और मानवाधिकार:


मानव-शास्त्रीय दृष्टिकोण, सांस्कृतिक व्यवहार और वैश्विक संदर्भ**

डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"

अखिल भारतीय अधिकार संगठन


सारांश


डार्विन का “योग्यतम की उत्तरजीविता” सिद्धांत प्रकृति की प्रतिस्पर्धात्मकता को दर्शाता है, परंतु मानव-सभ्यता का विकास सामाजिक-सांस्कृतिक पूरकता के आधार पर हुआ है। दिव्यांगता को यदि केवल जैविक अंतर मानकर छोड़ दिया जाए, तो यह प्रकृति की ओर वापसी होगी; जबकि आधुनिक राज्य, संस्कृति और मानवाधिकार इस जैविक विविधता को सामाजिक शक्ति में रूपांतरित करते हैं। अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस इसी सांस्कृतिक परिवर्तन का प्रतीक है।



1. मानव-शास्त्रीय प्रस्तावना


मानव-शास्त्र यह मानता है कि मानव का अस्तित्व केवल जैविक नहीं, बल्कि जैव-सांस्कृतिक (Bio-Cultural) है (Boas, 1911)।

अर्थात—


शरीर सीमाएँ निर्धारित करता है,


संस्कृति उन सीमाओं को बदल देती है।



दिव्यांगता भी जैविक कमी नहीं, बल्कि एक सामाजिक निर्माण (Social Construction) है—और इसका स्वरूप समाज द्वारा दी गई सुगम्यता, अवसर और स्वीकृति पर निर्भर करता है (Douglas, 1966; Ingstad & Whyte, 1995)।


इस दृष्टि से दिव्यांगजन को समाज की “कमजोर कड़ी” नहीं, बल्कि विविधता की अभिव्यक्ति माना जाता है।


2. जैविक अंतर और सामाजिक अर्थ: मानव-शास्त्रीय दृष्टिकोण


मानव-शास्त्र बताता है कि—


(1) शरीर के अंतर हमेशा से मानव समाज में मौजूद रहे हैं


शारीरिक भिन्नता मानव-प्रजाति की मूल विशेषता है। प्रागैतिहासिक काल की हड्डियों में भी विकृतियाँ, लिम्ब-डिफॉर्मिटी और चोटों के प्रमाण मिलते हैं (Tilley 2015)।


(2) फिर भी समाज उन्हें संरक्षण देता रहा है


निएंडरथल मानव के कंकाल में मिले साक्ष्य बताते हैं कि गंभीर शारीरिक अक्षमता वाले व्यक्तियों को भी समूह ने जीवनभर संरक्षण दिया (Shanidar Cave Skeleton, Solecki 1971)।

यह दर्शाता है कि मानव समाज स्वभाव से करुणाशील रहा है, और दिव्यांगजन की रक्षा हमारी जैविक बुनियाद का हिस्सा है।


(3) दिव्यांगता का अर्थ संस्कृति बनाती है


कुछ संस्कृतियों में—


अंधत्व को आध्यात्मिक शक्ति माना गया,


बहरापन सांकेतिक भाषा की एक परंपरा बना (Nyst, 2007),


मानसिक रोग को देवत्व या श्राप दोनों रूपों में देखा गया।



इसलिए मानव-शास्त्र का मूल सिद्धांत है—

“दिव्यांगता शरीर की नहीं, संस्कृति की व्याख्या है.”



3. भारतीय संदर्भ: दिव्यांगता का सांस्कृतिक आयाम


भारत में दिव्यांगता का सामाजिक अर्थ हमेशा एक जैसा नहीं रहा। मानव-शास्त्रीय अध्ययनों में तीन प्रमुख तथ्य उभरते हैं—


(1) पारंपरिक समाज में दिव्यांगता के प्रति द्वैत दृष्टिकोण


कुछ समुदाय दिव्यांग बच्चों को “दैवीय संकेत” मानते थे (Sax, 2010), जबकि कुछ स्थानों पर सामाजिक अलगाव पाया गया।


(2) संयुक्त परिवार मॉडल सहयोगी संरचना प्रदान करता था


ऐतिहासिक रूप से भारतीय परिवार संरचनाएँ दिव्यांगजन को


सुरक्षा


कामकाज में भूमिका


सामाजिक सम्मान

देती रही हैं।



(3) आधुनिक राज्य एक नए सांस्कृतिक बदलाव का वाहक है


2015 में “विकलांग” के बजाय “दिव्यांग” शब्द अपनाना भाषा के माध्यम से समानता की दिशा में एक सांस्कृतिक क्रांति है। भाषा सामाजिक अर्थ बदलती है—और अर्थ जीवन-बोध को।



4. दिव्यांगता और मानवाधिकार: मानव-शास्त्रीय तर्क


मानव-शास्त्र का केंद्रीय विचार है:

“मानव होने का अर्थ है—अंतर का सम्मान।”


दिव्यांगजन के अधिकार इसी विचार पर टिके हैं—


जीवन का मूल अधिकार (Right to Life)


समानता (Equality)


गतिशीलता की स्वतंत्रता (Mobility rights)


शिक्षा, आजीविका और सम्मान का अधिकार



ये अधिकार अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणाओं में भी स्थापित हैं—


UDHR (1948)


UNCRPD (2006)


RPwD Act India (2016)



ये सभी दस्तावेज कहते हैं कि दिव्यांगता सामाजिक चुनौती है, व्यक्ति की नहीं।



5. दिव्यांगता और संस्कृति: दया नहीं, सहभागिता


मानव-शास्त्रीय दृष्टि दिव्यांगजन को “सहायता के पात्र” नहीं, बल्कि सामाजिक संसाधन मानती है।


पैरालंपिक इसका सबसे बड़ा मानवीय उदाहरण है।


भारत में नौकरी आरक्षण, खेल, कला और शिक्षा में सहभागिता इसी सांस्कृतिक परिवर्तन का हिस्सा है।



यह “योग्यतम की उत्तरजीविता” की अवधारणा का विकल्प है—

यह सामाजिक उत्तरजीविता (Social Survival) का मॉडल है।



6. अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस की थीमें (मानव-शास्त्रीय विश्लेषण)


सभी वार्षिक थीमों का मूल संदेश यह है कि—


समाज की संरचना सुधारी जाए


अवसर तटस्थ बनाए जाएँ


दिव्यांगजन को विकास की धारा में बराबरी से जोड़ा जाए



यह स्पष्ट रूप से संरचनात्मक-कार्यात्मक मानव-शास्त्र (Structural Functionalism; Parsons 1951) का प्रतिबिंब है—

कि समाज का प्रत्येक सदस्य सामाजिक संतुलन का आवश्यक घटक है।



7. मानवाधिकार, अधिवक्ता दिवस और न्याय का Anthropological Ecosystem


3 दिसंबर को भारत में अधिवक्ता दिवस भी मनाया जाता है।

यह मानवाधिकारों की न्यायिक सुरक्षा का सांस्कृतिक प्रतीक है।


मानव-शास्त्र बताता है कि—

कानून मात्र नियम नहीं, बल्कि संस्कृति का जीवित दस्तावेज होता है (Malinowski 1926)।


इसलिए दिव्यांगजन अधिकार केवल शासन का विषय नहीं—

वे हमारे सांस्कृतिक दायित्व का हिस्सा हैं।


निष्कर्ष


दिव्यांगजन दिवस केवल “उत्सव” नहीं, बल्कि—


सांस्कृतिक चेतना,


सामाजिक बराबरी,


जैविक अंतर की स्वीकृति,


और मानवाधिकारों की पुनर्स्थापना



का दिन है।


मानव-शास्त्रीय दृष्टि स्पष्ट कहती है कि—

दिव्यांगता कमी नहीं, विविधता है।

दया नहीं, अधिकार है।

सहारा नहीं, समानता है।


और यही वह दृष्टि है जिसमें दिव्यांगजन स्वयं को पूर्ण मानव की तरह जीते हैं—सम्मान के साथ, अधिकारों के साथ, और गर्व के साथ।



संदर्भ (References)


(सभी प्रमुख मानव-शास्त्रीय एवं वैश्विक स्रोत)


1. Boas, Franz (1911). The Mind of Primitive Man.



2. Douglas, Mary (1966). Purity and Danger.



3. Ingstad, B. & Whyte, S. R. (1995). Disability and Culture.



4. Malinowski, Bronislaw (1926). Crime and Custom in Savage Society.



5. Parsons, Talcott (1951). The Social System.



6. Solecki, Ralph (1971). Shanidar: The First Flower People.



7. Tilley, L. (2015). “Theory and Practice in Paleopathology.” Journal of Archaeological Research.



8. Nyst, Victoria (2007). A Grammar of Adamorobe Sign Language.



9. Sax, William (2010). Gods and Healing in the Himalayas.



10. United Nations (1992–2023). International Day of Persons with Disabilities Themes.



11. UNCRPD (2006). Convention on the Rights of Persons with Disabilities.



12. RPwD Act (2016), Government of India.



13. WHO (2011). World Report on Disability.

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