मानवाधिकार
आलोक के रास्ते सीधे नहीं है,
लोग सिर्फ पूर्व के ,
भरोसे रहते नहीं है ।
आलोक यूं तो ,
आसमान से सीधे चला आता है ।
पर इस तरह मुंह उठाकर आने पर,
वह किसे पसंद आता है ?
अब तो लोग सुबह ,
दरवाजा भी नहीं खोलते हैं,
कि आलोक आंख खोलते ही ,
सबसे पहले दिखाई दे ।
उन्हें तो आलोक कमरों के,
अंदर वह वाला पसंद है ।
जो अपना हिसाब,
विद्युत को पाई पाई दे।
आलोक भी क्या करें ,
जब उसके प्रारब्ध में,
ना चाहते हुए भी निकलने की ,
फैलने की अवस्था है।
शायद यह गलती आलोक की है,
कि उसका स्पर्श,
हर किसी से लिए बिना मोल के,
खेलते रहने की व्यवस्था है।
इसीलिए दरवाजे बंद होने पर,
अब वह बिखरने लगा है ।
पर खुश है कि उसकी,
इस बिखराव से ,
खेतों में कम से कम ,
अनाज का कोई अर्थ देने लगा है।
कहीं फूल तो कहीं गेहूं ,
उस आलोक से मिलकर ,
न जाने कितनों की भूख मिटा जाते हैं ।
पर आदमी की ,
दुनिया में बहुत कम है ।
जो आलोक के इस रूप के साथ ,
खड़े नजर आते हैं ।
क्योंकि जब से पैसे से,
आलोक मिलने लगा है।
हर पल सभी के घर में,
एक छोटा सा बल्ब चमकने लगा है।
बल्ब ना हुआ मानो गूगल,
और ए आइ टूल हो गया है।
प्राकृतिक आलोक से हर कोई दूर,
बस कृत्रिम दुनिया में,
मशगूल हो गया है।
अंतिम बार तुमने खुद बढ़कर,
आलोक से कब हाथ मिलाया था ?
सोच कर देखो क्या वह,
हर सुबह तुम्हारे घर,
निस्वार्थ भाव से नहीं आया था ?
आलोक चांटिया "रजनीश"

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