भगवान भी ऐंठ जाते हैं,
जब हम उनके ,
दरवाजों पर नहीं जाते हैं।
ऐसा मैं नहीं ,
हर लोग कहते रहते हैं।
इसीलिए कम से कम हफ्ते में ,
एक बार लोग भगवान से,
मिलने जाते रहते हैं।
वह बात अलग है कि ,
उसके अलावा किसी भी दिन,
उन्हें ना भगवान की चिंता होती है ,
ना भगवान के भूख की चिंता होती है,
हर कोई अपने सांसों की,
दरिया में बस बहते रहते हैं।
सपनों में जिंदगी,
खोई खोई रहती है।
कभी-कभी जब मनुष्य,
यह जान ही नहीं पाता है कि,
उसके जीवन में दर्द कहां से आ गया ?
तब उसे कोई यह बता जाता है ।
कि लगता है कि तुम्हारा भगवान से,
कोई नहीं है नाटा !
तुम मंदिर क्यों नहीं जाते हो?
सारी परेशानियों का निचोड़,
क्यों नहीं वहीं से पाते हो?
भगवान भी तो,
मनुष्य की तरह ही होता है।
उसमें भी घृणा ईर्ष्या,
द्वेष का भाव रहता है।
इसीलिए जब भी,
रास्ते से निकला करो ।
मंदिर को देखकर ,
निकल मत जाया करो ।
खुद ब खुद अपने कदम को,
उसकी तरफ ले जाया करो।
थोड़ी देर रुका करो ,
अपने सर को झुकाया करो।
भगवान यह देखकर ,
खुश हो जाएगा ,
जब वह तुम्हें अपने कदमों में पाएगा।
क्योंकि वह भी यह ,
सोचकर खुश हो जाता है ।
कि अभी भी मनुष्य मुझसे,
बड़ा होने की कोशिश नहीं कर रहा है ,
मेरे आगे ही आकर अपने,
हर दर्द आंसू के लिए मर रहा है ।
इसीलिए कभी-कभी घर पर,
लौटने पर ऐसा लगता है कि,
अब जीवन मेरा सुधर जाएगा !
क्योंकि अब भगवान का क्रोध ,
हमारे हिस्से नहीं आएगा ।
हम उसके मंदिर में जाकर,
उससे मिले हैं,
पत्थर में भी दिल होता है ,
यह महसूस कर आए हैं ।
और तब तो पूछो ही मत,
कितनी खुशी का ,
जीवन में प्रसार दिखाई देता है ।
जब मंदिर से लौट के आने के बाद,
हमारे जीवन में खुशियों का,
ज्वार दो चार रहता है ।
हम लड़ते रहते हैं कि ,
हम कोई गुलाम नहीं रह गए हैं ।
हम गुलाम के रास्तों से ,
दूर निकल आए हैं ।
पर अगर भगवान के आगे अपना,
सर झुका कर नहीं आए हैं!
तो भला कितने पल ,
हम खुश रह पाए हैं ?
यही तो गीता भी हमको,
समझा कर चलती जा रही है,
कि जो भी विश्वास तुम्हें दिखाना है ,
मुझ में ही दिखाना है ।
अगर अपने जीवन में सुख,
समृद्धि और ज्ञान को पाना है ।
आलोक चांटिया "रजनीश"
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