Wednesday, December 10, 2025

मानवाधिकार का आलोक - डॉ आलोक चांटिया रजनीश

मानवाधिकार

आलोक के रास्ते सीधे नहीं है,

लोग सिर्फ पूर्व के ,

भरोसे रहते नहीं है ।

आलोक यूं तो ,

आसमान से सीधे चला आता है ।

पर इस तरह मुंह उठाकर आने पर,

वह किसे पसंद आता है ?

अब तो लोग सुबह ,

दरवाजा भी नहीं खोलते हैं,

कि आलोक आंख खोलते ही ,

सबसे पहले दिखाई दे ।

उन्हें तो आलोक कमरों के, 

अंदर वह वाला पसंद है ।

जो अपना हिसाब,

विद्युत को पाई पाई दे।

आलोक भी क्या करें ,

जब उसके प्रारब्ध में,

ना चाहते हुए भी निकलने की ,

फैलने की अवस्था है।

शायद यह गलती आलोक की है,

कि उसका स्पर्श,

हर किसी से लिए बिना मोल के,

खेलते रहने की व्यवस्था है।

इसीलिए दरवाजे बंद होने पर,

अब वह बिखरने लगा है ।

पर खुश है कि उसकी,

इस बिखराव से ,

खेतों में कम से कम ,

अनाज का कोई अर्थ देने लगा है।

कहीं फूल तो कहीं गेहूं ,

उस आलोक से मिलकर ,

न जाने कितनों की भूख मिटा जाते हैं ।

पर आदमी की ,

दुनिया में बहुत कम है ।

जो आलोक के इस रूप के साथ ,

खड़े नजर आते हैं ।

क्योंकि जब से पैसे से, 

आलोक मिलने लगा है।

हर पल सभी के घर में,

एक छोटा सा बल्ब चमकने लगा है।

बल्ब ना हुआ मानो गूगल, 

और ए आइ टूल हो गया है।

प्राकृतिक आलोक से हर कोई दूर,

बस कृत्रिम दुनिया में, 

मशगूल हो गया है।

अंतिम बार तुमने खुद बढ़कर,

आलोक से कब हाथ मिलाया था ?

सोच कर देखो क्या वह,

हर सुबह तुम्हारे घर,

निस्वार्थ भाव से नहीं आया था ?

आलोक चांटिया "रजनीश"


 

Sunday, December 7, 2025

पैदल जाते हुए राहगीर को देखकर, एक रिक्शावाला अमीर समझ जाता है आलोक चांटिया "रजनीश"

 पैदल जाते हुए राहगीर को देखकर,

एक रिक्शावाला अमीर समझ जाता है ।

पर एक कार वाले को,

वह गरीबी नजर आता है।

पैदल चलने वाला अपनी,

 जेब को टटोल कर देखता है।

फिर अपने आप को ,

दिल ही दिल समझाता है, 

पैदल चलने के कितने,

ज्यादा फायदे होते हैं।

जो कारों पर चलते हैं वह,

पूरे उम्र अपने,

खराब स्वास्थ्य को रोते हैं।

इसीलिए वह धीरे-धीरे कई,

 किलोमीटर तक पैदल चला जाता है।

उसके पीछे-पीछे वह, 

रिक्शावाला भी चला जाता है।

जो यह सोचता है कि ,

कुछ देर चलने के बाद यह, 

निश्चित रूप से थक जाएगा।

और उसके हिस्से में भी आज ,

दो रोटी का निवाला आ जाएगा ।

पर पैदल चलने वाला इसी,

 गुणा भाग में अभी भी लगा रहता है।

कि अपनी पेट की आग को, 

बुझाने के लिए अगर कुछ देर,

वह और पैदल चल लेता !

तो नुक्कड़ पर खड़े,

चाय वाले को ₹1 दे देता!

और चाय पीकर अपनी भूख को,

थोड़ी देर और मिटा लेता!

खुश हो लेता कि,

आज वह अपनी यात्रा को भी,

पूरी कर आया ,

अपनी भूख भी मिटाया,

और अपनी जेब में,

कुछ पैसा भी बचा लाया ।

पर रिक्शा वाले के जीवन में,

 दूसरी कहानी चल रही होगी!

कि भगवान आज मैंने ऐसा,

क्या गलत काम किया है ?

जो तुमने मेरे सहारे को भी छीन लिया है ।

लोग पैदल चले जा रहे हैं,

पर मेरे रिक्शे पर बैठने नहीं आ रहे हैं ?

पर वह कार चलने वाला,

जो तेजी से दोनों को पार करके,

चला गया है ।

वह किसी समारोह में मंच पर,

बोल रहा होगा ।

कि अभी उसने रास्ते में ,

दो गरीब को देखा है ।

जिनके हाथों में नहीं अमीरी की रेखा है।

इस अमीरी गरीबी की लड़ाई में,

हर कोई यह सोच रहा है ।

कि कौन किस अमीर हो रहा है ?

कौन कितना गरीब हो रहा है?

कौन पेट भर के सो रहा है?

कौन खाली पेट ही रो रहा है?

सभी के अपने-अपने फसाने हैं,

बस यही को सुनना सुनाने,

जिंदगी कितने बहाने हैं। 

आलोक चांटिया "रजनीश"


Saturday, December 6, 2025

भगवान भी ऐंठ जाते हैं- आलोक चांटिया रजनीश

 

भगवान भी ऐंठ जाते हैं,
जब हम उनके ,
दरवाजों पर नहीं जाते हैं।
ऐसा मैं नहीं ,
हर लोग कहते रहते हैं।
इसीलिए कम से कम हफ्ते में ,
एक बार लोग भगवान से, 

मिलने जाते रहते हैं।
वह बात अलग है कि ,
उसके अलावा किसी भी दिन,
उन्हें ना भगवान की चिंता होती है ,
ना भगवान के भूख की चिंता होती है,
हर कोई अपने सांसों की,
दरिया में बस बहते रहते हैं।
सपनों में जिंदगी,
खोई खोई रहती है।
कभी-कभी जब मनुष्य,
यह जान ही नहीं पाता है कि,
उसके जीवन में दर्द कहां से आ गया ?
तब उसे कोई यह बता जाता है ।
कि लगता है कि तुम्हारा भगवान से,
कोई नहीं है नाटा !
तुम मंदिर क्यों नहीं जाते हो?
सारी परेशानियों का निचोड़, 

क्यों नहीं वहीं से पाते हो?
भगवान भी तो,
मनुष्य की तरह ही होता है।
उसमें भी घृणा ईर्ष्या,
द्वेष का भाव रहता है।
इसीलिए जब भी,
रास्ते से निकला करो ।
मंदिर को देखकर ,
निकल मत जाया करो ।
खुद ब खुद अपने कदम को, 

उसकी तरफ ले जाया करो।
थोड़ी देर रुका करो ,
अपने सर को झुकाया करो।
भगवान यह देखकर ,
खुश हो जाएगा ,
जब वह तुम्हें अपने कदमों में पाएगा।
क्योंकि वह भी यह ,
सोचकर खुश हो जाता है ।
कि अभी भी मनुष्य मुझसे,
बड़ा होने की कोशिश नहीं कर रहा है ,
मेरे आगे ही आकर अपने,
हर दर्द आंसू के लिए मर रहा है ।
इसीलिए कभी-कभी घर पर,

 लौटने पर ऐसा लगता है कि, 

अब जीवन मेरा सुधर जाएगा !
क्योंकि अब भगवान का क्रोध ,
हमारे हिस्से नहीं आएगा ।
हम उसके मंदिर में जाकर, 

उससे मिले हैं,
पत्थर में भी दिल होता है ,
यह महसूस कर आए हैं ।
और तब तो पूछो ही मत, 

कितनी खुशी का ,
जीवन में प्रसार दिखाई देता है ।
जब मंदिर से लौट के आने के बाद,
हमारे जीवन में खुशियों का,
ज्वार दो चार रहता है ।
हम लड़ते रहते हैं कि ,
हम कोई गुलाम नहीं रह गए हैं ।
हम गुलाम के रास्तों से ,

दूर निकल आए हैं ।
पर अगर भगवान के आगे अपना,
सर झुका कर नहीं आए हैं!
तो भला कितने पल ,
हम खुश रह पाए हैं ?
यही तो गीता भी हमको, 

समझा कर चलती जा रही है,
कि जो भी विश्वास तुम्हें दिखाना है ,
मुझ में ही दिखाना है ।
अगर अपने जीवन में सुख,
समृद्धि और ज्ञान को पाना है ।
आलोक चांटिया "रजनीश"

Tuesday, December 2, 2025

अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस और मानवाधिकार: मानव-शास्त्रीय दृष्टिकोण, सांस्कृतिक व्यवहार और वैश्विक संदर्भ** डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"


 **अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस और मानवाधिकार:


मानव-शास्त्रीय दृष्टिकोण, सांस्कृतिक व्यवहार और वैश्विक संदर्भ**

डॉ आलोक चांटिया "रजनीश"

अखिल भारतीय अधिकार संगठन


सारांश


डार्विन का “योग्यतम की उत्तरजीविता” सिद्धांत प्रकृति की प्रतिस्पर्धात्मकता को दर्शाता है, परंतु मानव-सभ्यता का विकास सामाजिक-सांस्कृतिक पूरकता के आधार पर हुआ है। दिव्यांगता को यदि केवल जैविक अंतर मानकर छोड़ दिया जाए, तो यह प्रकृति की ओर वापसी होगी; जबकि आधुनिक राज्य, संस्कृति और मानवाधिकार इस जैविक विविधता को सामाजिक शक्ति में रूपांतरित करते हैं। अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस इसी सांस्कृतिक परिवर्तन का प्रतीक है।



1. मानव-शास्त्रीय प्रस्तावना


मानव-शास्त्र यह मानता है कि मानव का अस्तित्व केवल जैविक नहीं, बल्कि जैव-सांस्कृतिक (Bio-Cultural) है (Boas, 1911)।

अर्थात—


शरीर सीमाएँ निर्धारित करता है,


संस्कृति उन सीमाओं को बदल देती है।



दिव्यांगता भी जैविक कमी नहीं, बल्कि एक सामाजिक निर्माण (Social Construction) है—और इसका स्वरूप समाज द्वारा दी गई सुगम्यता, अवसर और स्वीकृति पर निर्भर करता है (Douglas, 1966; Ingstad & Whyte, 1995)।


इस दृष्टि से दिव्यांगजन को समाज की “कमजोर कड़ी” नहीं, बल्कि विविधता की अभिव्यक्ति माना जाता है।


2. जैविक अंतर और सामाजिक अर्थ: मानव-शास्त्रीय दृष्टिकोण


मानव-शास्त्र बताता है कि—


(1) शरीर के अंतर हमेशा से मानव समाज में मौजूद रहे हैं


शारीरिक भिन्नता मानव-प्रजाति की मूल विशेषता है। प्रागैतिहासिक काल की हड्डियों में भी विकृतियाँ, लिम्ब-डिफॉर्मिटी और चोटों के प्रमाण मिलते हैं (Tilley 2015)।


(2) फिर भी समाज उन्हें संरक्षण देता रहा है


निएंडरथल मानव के कंकाल में मिले साक्ष्य बताते हैं कि गंभीर शारीरिक अक्षमता वाले व्यक्तियों को भी समूह ने जीवनभर संरक्षण दिया (Shanidar Cave Skeleton, Solecki 1971)।

यह दर्शाता है कि मानव समाज स्वभाव से करुणाशील रहा है, और दिव्यांगजन की रक्षा हमारी जैविक बुनियाद का हिस्सा है।


(3) दिव्यांगता का अर्थ संस्कृति बनाती है


कुछ संस्कृतियों में—


अंधत्व को आध्यात्मिक शक्ति माना गया,


बहरापन सांकेतिक भाषा की एक परंपरा बना (Nyst, 2007),


मानसिक रोग को देवत्व या श्राप दोनों रूपों में देखा गया।



इसलिए मानव-शास्त्र का मूल सिद्धांत है—

“दिव्यांगता शरीर की नहीं, संस्कृति की व्याख्या है.”



3. भारतीय संदर्भ: दिव्यांगता का सांस्कृतिक आयाम


भारत में दिव्यांगता का सामाजिक अर्थ हमेशा एक जैसा नहीं रहा। मानव-शास्त्रीय अध्ययनों में तीन प्रमुख तथ्य उभरते हैं—


(1) पारंपरिक समाज में दिव्यांगता के प्रति द्वैत दृष्टिकोण


कुछ समुदाय दिव्यांग बच्चों को “दैवीय संकेत” मानते थे (Sax, 2010), जबकि कुछ स्थानों पर सामाजिक अलगाव पाया गया।


(2) संयुक्त परिवार मॉडल सहयोगी संरचना प्रदान करता था


ऐतिहासिक रूप से भारतीय परिवार संरचनाएँ दिव्यांगजन को


सुरक्षा


कामकाज में भूमिका


सामाजिक सम्मान

देती रही हैं।



(3) आधुनिक राज्य एक नए सांस्कृतिक बदलाव का वाहक है


2015 में “विकलांग” के बजाय “दिव्यांग” शब्द अपनाना भाषा के माध्यम से समानता की दिशा में एक सांस्कृतिक क्रांति है। भाषा सामाजिक अर्थ बदलती है—और अर्थ जीवन-बोध को।



4. दिव्यांगता और मानवाधिकार: मानव-शास्त्रीय तर्क


मानव-शास्त्र का केंद्रीय विचार है:

“मानव होने का अर्थ है—अंतर का सम्मान।”


दिव्यांगजन के अधिकार इसी विचार पर टिके हैं—


जीवन का मूल अधिकार (Right to Life)


समानता (Equality)


गतिशीलता की स्वतंत्रता (Mobility rights)


शिक्षा, आजीविका और सम्मान का अधिकार



ये अधिकार अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणाओं में भी स्थापित हैं—


UDHR (1948)


UNCRPD (2006)


RPwD Act India (2016)



ये सभी दस्तावेज कहते हैं कि दिव्यांगता सामाजिक चुनौती है, व्यक्ति की नहीं।



5. दिव्यांगता और संस्कृति: दया नहीं, सहभागिता


मानव-शास्त्रीय दृष्टि दिव्यांगजन को “सहायता के पात्र” नहीं, बल्कि सामाजिक संसाधन मानती है।


पैरालंपिक इसका सबसे बड़ा मानवीय उदाहरण है।


भारत में नौकरी आरक्षण, खेल, कला और शिक्षा में सहभागिता इसी सांस्कृतिक परिवर्तन का हिस्सा है।



यह “योग्यतम की उत्तरजीविता” की अवधारणा का विकल्प है—

यह सामाजिक उत्तरजीविता (Social Survival) का मॉडल है।



6. अंतरराष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस की थीमें (मानव-शास्त्रीय विश्लेषण)


सभी वार्षिक थीमों का मूल संदेश यह है कि—


समाज की संरचना सुधारी जाए


अवसर तटस्थ बनाए जाएँ


दिव्यांगजन को विकास की धारा में बराबरी से जोड़ा जाए



यह स्पष्ट रूप से संरचनात्मक-कार्यात्मक मानव-शास्त्र (Structural Functionalism; Parsons 1951) का प्रतिबिंब है—

कि समाज का प्रत्येक सदस्य सामाजिक संतुलन का आवश्यक घटक है।



7. मानवाधिकार, अधिवक्ता दिवस और न्याय का Anthropological Ecosystem


3 दिसंबर को भारत में अधिवक्ता दिवस भी मनाया जाता है।

यह मानवाधिकारों की न्यायिक सुरक्षा का सांस्कृतिक प्रतीक है।


मानव-शास्त्र बताता है कि—

कानून मात्र नियम नहीं, बल्कि संस्कृति का जीवित दस्तावेज होता है (Malinowski 1926)।


इसलिए दिव्यांगजन अधिकार केवल शासन का विषय नहीं—

वे हमारे सांस्कृतिक दायित्व का हिस्सा हैं।


निष्कर्ष


दिव्यांगजन दिवस केवल “उत्सव” नहीं, बल्कि—


सांस्कृतिक चेतना,


सामाजिक बराबरी,


जैविक अंतर की स्वीकृति,


और मानवाधिकारों की पुनर्स्थापना



का दिन है।


मानव-शास्त्रीय दृष्टि स्पष्ट कहती है कि—

दिव्यांगता कमी नहीं, विविधता है।

दया नहीं, अधिकार है।

सहारा नहीं, समानता है।


और यही वह दृष्टि है जिसमें दिव्यांगजन स्वयं को पूर्ण मानव की तरह जीते हैं—सम्मान के साथ, अधिकारों के साथ, और गर्व के साथ।



संदर्भ (References)


(सभी प्रमुख मानव-शास्त्रीय एवं वैश्विक स्रोत)


1. Boas, Franz (1911). The Mind of Primitive Man.



2. Douglas, Mary (1966). Purity and Danger.



3. Ingstad, B. & Whyte, S. R. (1995). Disability and Culture.



4. Malinowski, Bronislaw (1926). Crime and Custom in Savage Society.



5. Parsons, Talcott (1951). The Social System.



6. Solecki, Ralph (1971). Shanidar: The First Flower People.



7. Tilley, L. (2015). “Theory and Practice in Paleopathology.” Journal of Archaeological Research.



8. Nyst, Victoria (2007). A Grammar of Adamorobe Sign Language.



9. Sax, William (2010). Gods and Healing in the Himalayas.



10. United Nations (1992–2023). International Day of Persons with Disabilities Themes.



11. UNCRPD (2006). Convention on the Rights of Persons with Disabilities.



12. RPwD Act (2016), Government of India.



13. WHO (2011). World Report on Disability.

Monday, December 1, 2025

मैं कहां खो गया आलोक चांटिया "रजनीश"


 शहर में कब अकेला हो गया,

 यह जान ही नहीं पाया।

यह सच है जब घर से चला था ,

तब यहां अकेला ही था आया।

लगा ऐसे जैसे जानवरों की बस्ती में,

मैंने भी अपनी एक बस्ती बना ली है।

जीवन की हजारों ख्वाहिशें,

मैंने चुटकियों में पाली है ।

हर तरफ खिलखिलाते गुनगुनाते,

लोगों की महफिल सजती देखकर,

मैं मस्त हो जाता था ।

फिर भला कहां कब किसी की,

बात में सुन पाता था ।

पर यह जान ही नहीं पाया कि,

जो मेरे सामने आकर खड़े होते हैं ।

वह महज एक छलावा होते हैं ।

जो अपने कामों की,

गरज से खड़े रहते हैं ।

कुछ देर मेरे सामने या, 

कभी-कभी बैठ भी जाते हैं।

पर उनके काम पूरे हो जाने के बाद,

वह कभी कहां नजर आते हैं?

इसी भ्रम में मैंने कभी ,

अपने बगल किसी को,

अपना कह कर खड़े होने की,

जरूरत ही कहां समझी थी?

यह भूल थी या सही रास्ता,

इस बात की बात को ,

सांस कहां समझी थी ?

दर्द तो तब हुआ जब,

कमरा खाली होता चला गया।

दरवाजे भी दस्तक की चाह में,

चुपचाप बंद ही रह गया।

कभी-कभी झींगुरों की तरह,

कुछ लोगों ने अपने होने का,

एहसास कराया।

पर उनकी आवाज से ना, 

जीवन में कोई रास आया ,

ना मैंने कुछ बदलता हुआ पाया।

लगता रहा कि मैंने मुट्ठी में, 

सब कुछ बंद कर लिया हूं ।

पर रेत कब रूकती है,

इसको ही नहीं समझ पाया।

अंधेरे के बाद उजाला होता है,

इस बात को सोच-सोच कर, 

मुझे यह विश्वास रहता है।

 क्योंकि जिसे देखिए वही,

इस दर्शन को कहता रहता है ।

परेशान मत हो एक दिन,

 तुम्हारा भी अच्छा समय आएगा।

जब फिर से वही माहौल होगा।

वही दौर छाएगा ।

पर मझधार में फंसा हुआ,

मैं अभी अपने को,

किनारे पर कैसे लाऊं ?

डूबते को तिनके का सहारा होता है,

पर वह तिनका कहां से पाऊं?

बस इसीलिए शहर के ,

समुद्र में डूब कर अकेला हो गया,

कोई जान ही नहीं पाया कब,

अंधेरे में आलोक कहां खो गया ?

आलोक चांटिया "रजनीश"


Sunday, November 30, 2025

मिट्टी और बीज का, कोई मेल कहां होता है?- आलोक चांटिया "रजनीश


 मिट्टी और बीज का,

कोई मेल कहां होता है?

रंग रूप गुण आकार प्रकार,

सब कुछ तो अलग होता है। 

फिर भी मिट्टी के साथ ही,

बीज के अंदर का ,

हर अर्थ छिपा होता है ।

बीज की दृष्टि यह पहचान जाती है ,

कि उसके जीवन की कहानी, 

मिट्टी से पहचानी जाती है।

वह कभी मिट्टी से,

दूरी नहीं बनाता है ।

उसे रंग रूप आकार प्रकार, 

में नहीं फसाता है।

समर्पित हो जाता है ,

मिट्टी के साथ जीवन जीने के लिए ,

तभी तो पृथ्वी पर प्रकृति ने,

 न जाने कितने अर्थ दिए।

अपने को जानवर से दूर करके,

आदमी भी बहुत दूर निकल आया है ।

पर उसने अपनों की ही बीच, 

एक ऐसा जगत बनाया है! 

जहां पर आदमी आदमी से, 

अलग दिखाई देने लगा है।

मिट्टी का शरीर पाकर भी, 

उसमें से भला कहां कुछ,

प्रेम सहयोग भाईचारा का,

अर्थ उगा पाया है ।

आलोक चांटिया "रजनीश"


Saturday, November 29, 2025

रिश्ते लौटते नहीं है डॉ आलोक चांटिया रजनीश


 अब विवाह लोग अपने,

घरों से नहीं करते हैं।

सिर्फ और सिर्फ ज्यादातर, 

अपनी दहलीज पर मरते हैं।

क्योंकि विवाह के बाद के,

 संबंध अब स्थिर नहीं होते हैं।

इसीलिए लोग होटल पार्क, 

मैदान गेस्ट हाउस ढूंढ लेते हैं।

संबंध के नाम पर ,

उसी को घर का नाम देते हैं।

संबंध लाख ढूंढने पर फिर,

घर की तरफ लौट ही नहीं पाता है।

क्योंकि संबंधों का दायरा ही अपना,

जन्म घर के द्वारचार से नहीं,

होटल के रिसेप्शन से पाता है।

शहनाई की आवाज भी, 

होटल से आती है ।

सोहर बन्ना की गूंज ,

बड़ी-बड़ी महफिले पाती हैं।

कहां कोई अब,

ढोलक बजाता है ।

कहां घर के आंचल में लिपटी हुई,

औरतें कोई गाना बैठकर गाती हैं।

कहां कोई अपने बेटे बेटी के लिए,

सुंदर से गीत सुनाती हैं।

सब अब किराए के,

लोगों को लेकर चले आते हैं।

संबंध का यही अर्थ,

तो अब हम पाते हैं ।

कोई चाहता तक नहीं है कि,

मांग की लकीरें उसके, 

जीवन के अर्थ को,

दुनिया को बता जाएं ।

सौंदर्य के ललक में कुछ ,

ऐसा चल रहा है ,

कि उर्वशी मेनका भी शरमा जाए।

इसीलिए घरों में कमरे,

कम होने लगे हैं।

होटल और गेस्ट हाउस में, 

कमरों की संख्या बढ़ने लगी है ।

कुछ पल के लिए ही रिश्तेदार ,

रिश्ते चारों तरफ रहे।

तभी अच्छा लगता है ,

अब कोई भला रत जगा में, 

रात-रात कहां जगता है?

संबंध भी आत्मा की तरह, 

कपड़े बदलने वाला एक, 

सिलसिला होता जा रहा है।

आदमी आज फिर संस्कृति से ,

निकल पशु जगत में ,

खोता जा रहा है ।

अब घरों के दरवाजों से, 

विदाई का शोर सुनाई नहीं देता है ।

कोई किसी का हाथ पकड़ कर,

कार पर बिठा लेता है ।

लोग हाथ झाड़ कर फिर, 

अपने घरों को लौट आते हैं।

संबंध जो सड़क पर बनाए गए हैं ,

अब घर तक लौटकर नहीं आते हैं ।

आलोक चांटिया "रजनीश"