Thursday, September 21, 2023
Sunday, September 17, 2023
मानवता के उसे पार poem by Alok chantia
अनगिनत धमनी शिरा का ,
जाल खून से लथपथ कुछ,
मांस के लोथड़े और कठोर,
हड्डियों के ऊपर बना हुआ ,
एक कोमल चेहरा झील सी ,
आंखें मांसल कपोल ही ,
किसी को आकर्षित करता है l
भला ऊपरी चेहरे से इतर ,
कौन भीतर की चेहरे की ,
बात आलोक करता है ?
श्वेद बूंदों से और खेत की ,
मिट्टी से सने हुए कपड़ों के बीच,
झांकती हुई हड्डियां और ,
धूप की रोशनी से काले पड़ गए,
तन मे कौन सुंदरता खोजता है ?
बस उनकी मेहनत से मिट्टी को ,
तोड़कर निकले हुए अनाज के ,
बीजों में ही हर कोई डूबता है !
न जाने क्यों सच से ,
हर कोई सच में उबता है ?
फिर भी मानवता परोपकार की ,
ना जाने कितनी कहानियां कहता है l
रोज रह जाता है किसी के ,
घर में अंधेरा बिना जला हुआ चूल्हा ,
और भूख से सो गए बच्चों का ,
एक लंबा सिलसिला लेकिन ,
एक झूठ मिल जाता है हंसता हुआ ,
और खिला खिला बोलता भी है ,
जोर-जोर से हम सब एक हैं !
कोई भी अंतर नहीं है हम सब में ,
अनेकता में एकता का दर्शन जीकर ,
वह लोकप्रिय भी बन जाता है पर ,
भला उस आदमी के अंदर ,
जकड़ा हुआ गुलाम आदमी ,
कब कहां कौन देख पाता है ?
चेहरे के अंदर का खून,
धमनी में बंधा हुआ चेहरा ,
तेजाब से जला हुआ चेहरा,
कहां किसे आकर्षित कर पाता है ?
आदमी अक्सर सच से दूर रोज ,
एक झूठ जी जाता है ,
एक झूठ जी जाता है ,
अंधेरे में खड़ा आलोक सा जीवन
मुट्ठी में सिर्फ रेत पाता हैl
मुट्ठी में सिर्फ रेत पाता है
आलोक चांटिया
Friday, September 15, 2023
मिट्टी से जुड़ना सीखो poem by Alok chantia
अपनी सारी कठोरता ,
अकड़ नीरसता सूखेपन को,
एक बीज तब समझ पाया,
जब वह मिट्टी की अतल,
गहराइयों का स्पर्श और ,
नमी को अपने अंदर समाता पायाl
मिट्टी ने उसको उसका ,
असली चेहरा दिखाया था,
कितने सुंदर सुंदर रंग के फूल ,
उसमे छिपे हैं उसको अंकुरण के लिए,
उत्साहित करके बताया था l
छोटी-छोटी कोमल पत्तियों और,
फल के साथ दुनिया में,
वह कितना सम्मान पा सकता है,
लोगों के कितने करीब आ सकता है?
बीज को मिट्टी ने अपने ,
संपर्क से यही समझाया था l
ना जाने क्यों मानव ,
इस दर्शन से कोसों दूर जा चुका है l
मिट्टी का शरीर उसका भी है,
अपने अंदर के बीज को,
वह न जाने कहां मार चुका है l
मिट्टी चाहती है आज भी,
अपने शरीर के अंदर उन सारे,
तत्वों को चुन चुन कर,
इस दुनिया में निकालना l
जिसके अंदर जियो और,
जीने दो का सुंदर सार है ,
जानवरों से आदमी को,
थोड़ा और ऊंचा उठाना l
क्या मानव आज भी अपने ,
शरीर को जानता है ?
मिट्टी का ही है वह भी,
क्या आलोक यह मानता है !
आलोक चांटिया
Monday, September 11, 2023
समय एक सा नहीं by Alok chantia
सोचता हूँ कितना समय ,
कब कहां और क्यों खो गया ?
देखता हूँ अब समुंदर ,
कुछ और ज्यादा उठ गया !
कुछ और खारा हो गया ,
जिंदगी से दूर हो गयाl
सोचता हूँ समय को ,
लेकर मैं क्यों न चल सका ?
देखता हूँ बाल सारे ,
काले मैं न रख सका l
बिना छड़ी ना चल सका,
समय मेरे लिए नहीं रुकाl
सोचता हूँ और कितना,
समय अब मुट्ठी में है ?
देखता हूँ जो कल हसे थे ,
दिलों में मेरे बसे थे l
सपने लिए थे वो ,
आज चिताओं पर सोए हैं ,
या मिटटी में खोए हैं l
पूछता हूँ खुद से यही ,
क्यों नहीं समझा समय ?
जानते थे जब सभी ,
एक सा रहता नहीं समय l
डॉआलोक चांटिया
हिम्मत मत हारो........by Alok chantia
है दूर बहुत दूर,
सूरज फिर भी,
कोशिश तो करता है l
घर आंगन चौबारे को,
अपनी रोशनी से ,
तो भरता है l
ऐसा नहीं कि पीछे है ,
चांद भी रात की कालिमा को ,
वह अपनी चांदनी से हरता है l
तारे भी टिम टिमा कर ,
एहसास करा जाते हैं l
सुंदरता किसको कहते हैं ,
यह तक बता जाते हैं l
फिर क्यों तुम ,
हारे जा रहे हो ?
अपने अंदर हताशा और,
कमी को पा रहे हो !
सोचो कुछ ना कुछ तो ,
तारे सूरज चांद सा ,
तुम्हें भी होगा जो इस ,
संसार में ,
किसी के काम का तो होगा l
कोशिश तो कर ही डालो ,
यह जानने के लिएl
जीवन कर्म का नाम है ,
यह मानने के लिए l
आलोक चांटिया
Wednesday, September 6, 2023
अंधेरे को अपना ही समझो। poem by Alok chantia
आज का दिन अंधेरे के,
साथ पूरा हो रहा है ,
अंधेरे से गुजर कर ही ,
दूसरे दिन का सवेरा हो रहा है,
इतना अजीब है जीवन का ,
यह खेल आलोक ,
कितनी भी कोशिश कर लो,
अंधेरा जीवन का हिस्सा हो रहा है,
न जाने फिर क्यों ,
घबरा जाते हैं लोग अंधेरों से,
जब अंधेरे के पार ही ,
सूरज पूरब का हो रहा है ,
घबराकर आंख बंद मत करो,
अंधेरे में आसमान रंगीन हो रहा है,
तारे भी नाच उठे हैं अनवरत,
अंधेरे को देख देखकर,
सवेरे ने जो छीना था टिमटिमाना,
अब उनका हो रहा है ,
मान भी लो अंधेरों में ,
तुम्हारी सांसे पूरी हुई है ,
गर्भ के उस पार देखो ,
किलकारी का बसेरा हो रहा है,
सुंदर सपने भी आंखों के,
बंद होने पर आते हैं ,
नींद मत समझो इन्हें सुंदर रास्तों पर,
ये तो कल का सवेरा हो रहा है।
आलोक चांटिया
जिस दिन हम अंधेरे के दर्शन को समझ जाएंगे हमारे बहुत से संकट दर्द अवसाद वैसे ही समाप्त हो जाएंगे
Tuesday, September 5, 2023
माना की आज मन हताश है , poem by Alok chantia
माना की आज मन हताश है ,
पर बंजर में भी एक आस है l
चला कर तो एक बार देख लो ,
अपाहिज में चलने की प्यास है l
कह कर मुझे मरा क्यों हँसते,
यह भी लीला उसकी रास है l
लौट कर आऊंगा या नही मैं ,
क्या पता किसको एहसास है l
लेकिन ये सच कैसे झूठ कहूँ ,
मौत के पार भी कोई प्रकाश है l
आओ बढ़ कर उंगली थाम लो ,
हार कर भी मुझमे उजास हैl
पागल मुझको कहकर खुद ही ,
देखो आज वो किसकी लाश है l
आज कर लो जो मन में है कही ,
जाते हुए न कहना मन निराश है l
सभी को नही मिलता आदमी यहां,
आज जानवरों का यही परिहास है l आलोक चांटिया