Saturday, May 2, 2020

रात जैसे जैसे गहराती गई , BY ALOK CHANTIA

रात जैसे  जैसे गहराती गई ,
तारो सी जिन्दगी आती गई ,
सुबह तक सूरज सा चमका ,
सांस  अँधेरे में समाती गई |,
पूरी रात जिसकी बाहों में रहा ,
वही समय अब न जाने कहाँ ,
ढूंढता भी रहा फिर पूरब में ,
वो उम्र का लम्हा फिर  वहां|
मौत की बात करने से डरे ,
फिर भी एक दिन हम मरे ,
सच से भागने  की ये आदत ,
इस झूठ  का हम क्या करें |
रिश्तो के बाज़ार में अकेला ,
फिर भी उसी का हर मेला ,
कोई  क्यों बढ़ कर मिला ,
कोई क्यों भावना से खेला |
जिन्दा रहने पर एक भी नही ,
मरने पर चार कंधे का सहारा ,
कोई भी न बैठा मेरे साथ कभी ,
पर आज था सारा जहाँ हमारा |
एक बूंद में छिपी नदी की कहानी ,
एक आंसू में थी बूंद की जवानी ,
कितना बहूँ की समंदर मिल जाये ,
रास्ते की कसक न होती सुहानी |
आलोक को पाकर चाँद भी चमका ,
तारो का भी कुछ संसार था दमका ,
क्यों फिर भी रहा सफ़र अँधेरे में ,
सपनो में जीकर दिल क्यों छमका |
रेत सा जीवन मुट्ठी में बंद है ,
 जीने के चार दिन भी चंद है ,
हस लो तुम जितना भी चाहो ,
रोने का अपना अलग ही द्वन्द है |

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