उस घर में हिंदू रहता है,
इस घर में मुस्लिम रहता है ,
वहां के घर में ईसाई रहता है,
यहां के घर में सिख रहता है ,
पर एक घर सदैव ही घर रहता है ,
कोई घर कभी भी हिंदू मुस्लिम ,
सिख इसाई नहीं रहता है ,
दीवारों की इस बात को ,
जो भी समझ जाता है ,
वह भला इस मकङ जाल में ,
कहां आता है ?
किसी घर को हिंदू मुस्लिम ,
सिख इसाई मत बनाइए ,
यही तो मानव का ,
मानवता से नाता है,
आलोक चांटिया
आलोक चान्टिया कीकविता और शायरी - ALOK CHANTIA
Sunday, February 16, 2025
घर निरपेक्ष होता है आलोक चांटिया
Thursday, February 13, 2025
अंधेरा जरूरी है -आलोक चांटिया
जमीन के ऊपर जो एक,
हरा-हरा पौधा निकल पाया है,
वह जमीन के अंदर अंधेरों से,
लड़कर ही बाहर आया है ।
कोई भी दुनिया में अगर ,
जीने के लिए आया है ,
तो वह भी गर्भ के अंधेरे से,
दो चार होकर आया है ।
क्यों भागते हैं हम इस तरह ,
अंधेरों के रास्तों से बचकर,
बिना अंधेरे के कौन यहां पर,
सूरज का मतलब भी समझ पाया है।
अंधेरे को आत्मसात कर एक,
कोयला हीरा बन जाता है ,
संघर्ष के रास्तों से ही कोई ,
कोई महान बन पाया है ।
मुट्ठी में बंद अंधेरे को ही,
समझने के लिए यहां आते हैं ,
तभी तो जाता हुआ मृत व्यक्ति,
अपना खुला हाथ ही पाया है।
आलोक चांटिया
Wednesday, February 5, 2025
किराएदार- आलोक चांटिया
दुनिया में रहने आए हैं यही
हर कोई किसी से कहता है
एक किराएदार न जाने क्यों
सबसे यही कहता रहता है
उसे याद भी नहीं है कि
चार दिवारी में कब कौन कितनी
सांस लेकर चला गया है
फिर भी हर चार दिवारी को
वह बार-बार अपना कहता है
सांस भी जिस घर में रहती हैं
वह घर भी जर्जर हो जाता है
जब शरीर खुद का नहीं हो पाता
फिर भी सब कुछ उसका है
यही वह कहता जाता है
खो देता है सुख चैन नींद हंसी
खुशी यही सोच कर क्या समेट लूं
जीवन उसका चींटी सा बन जाता है
कितने ऐसे जो समझ यह पाते हैं
मिट्टी का शरीर है मिट्टी में मिल जाएगा
फिर भी वह अपने भीतर एक
अमरता का एहसास पाता है
आदमी न जाने कब शरीर से
हाड मांस का होकर भी
पत्थर का बन जाता है
किराएदार होकर भी वह आलोक
भ्रम भीतर मलिक का ही पाता है
आलोक चांटिया
Tuesday, January 28, 2025
अंधेरों में रह गए -आलोक चांटिया
कल के इंतजार में कई
कल निकलते चले गए
और हम बचपन जवानी
बुढ़ापे के साथ अकेले रह गए
लगता रहा जरूरत किसी की
क्या इन रास्तों पर
कई बार हम सन्नाटो में
ठिठकते चले गए
पहुंच कर वहां पर
एहसास भी हुआ पर
एहसास भी मुट्ठी में खाली रह गए
कदमों के साथ चलकर
हम बस चलते गए
सांस भी थक गई जब
चुपचाप हम हो गए
ढूंढते हैं न जाने क्या
आंखों से किसी शरीर में
रूह से दूर होकर बस
आलोक खोखले हो गए
मुट्ठी में है जो रखा
सच वही सिर्फ हुआ था
उजाले के तलाश में हम
अंधेरों में रह गए
आलोक चांटिया
Sunday, January 19, 2025
चूहा मेरा अकेलापन जान गए हैं -आलोक चांटिया
मेरे अकेलेपन को
वे जान गए हैं
शायद यही कारण है कि
मानव ना होते हुए भी
वे मुझे अपना मान गए हैं
मेरे चूहे कमरे में चुपचाप
मेरे साथ रहते हैं
अक्सर खाने के समय
मेरे इर्द-गिर्द ही रहते हैं
कभी-कभी सन्नाटो को
तोड़ने के लिए वे निकल आते हैं कमरों में इधर-उधर शायद
बात कर चले भी जाते हैं
कि तुम अकेले कहां हो
हम तो तुम्हारे साथ ही
कमरे में रहते हैं
जितनी अधीरता से वे
मेरी ओर निकल कर
देखने लगते हैं
उनकी बाहर निकली हुई
चमकती आंखें और उसमें
डूबे शब्द-क्या कहते रहते हैं
शायद वह आदमी के दर्द को
अब ज्यादा समझने लगे हैं
मेरे चूहे कुछ ज्यादा ही
मेरे अपने से रहने लगे हैं।
आलोक चांटिया
Monday, January 13, 2025
चूहा और मकर संक्रांति -आलोक चांटिया
चूहे की मकर संक्रांति
यह तो मैं काफी समय
पहले ही समझ गया था
दुश्मनी करने का कोई
फायदा नहीं होता है
मकर संक्रांति पर शनि और
सूरज एक दूसरे के
कट्टर दुश्मनों का भी
रहना एक साथ होता है
प्रकृति और ब्रह्मांड जब
इस खेल को हमें दिखता है
तब भी हमें समझ में नहीं आता
कि हमको सबको
मिल बाट कर रहना है
किसी से किसी को
कुछ नहीं कहना है
इसीलिए अपने दुश्मन
मानव के साथ चूहे ने
रहना सीख लिया है
मकर संक्रांति ने उनको
यह छोटा सा अर्थ दिया है
कि दुश्मन ही सही मानव
तुम उसके सामने बराबर
आते जाते रहो
चुपचाप उसकी तरफ देखो
और कुछ भी ना कहो
एक दिन तो उसे
समझ में आएगा कि
बेवजह इस चूहे ने मेरा
क्या बिगाड़ डाला है
जो इसके लिए सिर्फ हत्या
पिंजरा का रहता हाला है
मकर संक्रांति का यह
जादू मेरे साथ चल रहा है
सच बताऊं कमरे का
हर चूहा आजकल
मुझसे मिल रहा है
प्रकृति की यह मकर संक्रांति का
खेल मेरे कमरे पर
रोज-रोज चल रहा है
आलोक चांटिया