हर पल ऐसा लगता है
कि अंदर कुछ ऐसा चल रहा है
जो निकालना चाहता है
कहना चाहता है पर न जाने क्यों
उस उलझन को सामने लाने के
शब्द नहीं मिल पाते हैं
और एक दिन आदमी के साथ ही
वह अंदर ही अंदर दफन होकर
इस दुनिया से भी चले जाते हैं
पता नहीं क्यों ऐसा लगता है
कि शब्द भी अपने सृजन को
लेकर बहुत गंभीर होते हैं
जल्दी दिमाग से निकलने नहीं चाहते हैं
जब तक वह अपने अनुसार
अपने को नहीं पाते हैं
शब्द भी विकलांग होते हैं
शब्द भी अंधे होते हैं
शब्द भी बहरे होते हैं
शब्द भी गूंगे होते हैं
जब वहां समय से पहले बिना सोचे समझे
दुनिया में निकाल दिए जाते हैं
शायद इसीलिए वह चाहते हैं
कि अपना प्रजनन काल पूरा करके ही
वह मस्तिष्क के रास्तों से होकर
दुनिया के सामने ले जाएं
ताकि शब्दों की किलकारी में
हम पूरा-पूरा आनंद पाये
क्योंकि कई बार अधपके खाने की तरह
शब्द बाहर तो निकल आते हैं
पर भला वह किसी का ध्यान भी
कहां आकर्षित कर पाते हैं
पड़े रहते हैं सड जाते हैं
फेंक दिए जाते हैं कोने में
और कोई भी नहीं मिलता
उनके लिए एक पल भी रोने में
इसीलिए शब्द भी अपने अपमान के लिए
सिर्फ बाहर नहीं निकालना चाहते हैं
वह भी अपने मानवाधिकार के लिए
पुरी जी जान से लड़ना चाहते हैं
अपने को स्थापित करना चाहते हैं
अपनी गरिमा को पाना चाहते हैं
और अंतिम समय तक ढूंढते हैं
उस किसी एक मिट्टी को जिसके अंदर
वह रहकर अपने अंदर का
अंकुरण फोड़ पाते हैं
और दुनिया को अपने होने का
सुंदर सा एहसास करा पाते हैं
पर इतना करने के बाद भी
शब्दों का भी जातिवाद चलने लगता है
कोई हल्के शब्द होते हैं
कोई अच्छे शब्द होते हैं
कोई निम्न शब्द होते हैं
कोई उच्च शब्द होते हैं
कोई गरिमा पूर्ण शब्द होते हैं
क्योंकि किस मिट्टी से होकर
कौन सा शब्द अपने को बना पाया है
यहां तथ्य ही सबसे महत्वपूर्ण
इस दुनिया में होता आया है
इसीलिए कहा भी गया है कोई
कि बोलने से पहले कई बार
किसी को भी सोच लेना चाहिए
क्योंकि शब्द तो निकल आएंगे
पर कम से कम उनके लिए
एक आदत अच्छा ग्राहक तो पाइये
इसीलिए कई बार लोग शब्द
पैदा करने के बजाय बच्चा चोर
की तरह शब्द चुराने लगते हैं
और अपना काम यूं ही चलाने लगते हैं
शब्द का यह दर्द या उसके जीवन के
आकार का यह मर्म हम सब
जब भी समझ जाएंगे
शब्दों से ही इस दुनिया को एक स्वर्ग
और किसी के लिए
जीने का अर्थ बना जाएंगे
आलोक चांटिया "रजनीश"