Sunday, June 8, 2025

शब्द निकलना नहीं चाहते हैं आलोक चांटिया "रजनीश"

 

हर पल ऐसा लगता है
कि अंदर कुछ ऐसा चल रहा है
जो निकालना चाहता है
कहना चाहता है पर न जाने क्यों
उस उलझन को सामने लाने के
शब्द नहीं मिल पाते हैं
और एक दिन आदमी के साथ ही
वह अंदर ही अंदर दफन होकर
इस दुनिया से भी चले जाते हैं
पता नहीं क्यों ऐसा लगता है
कि शब्द भी अपने सृजन को
लेकर बहुत गंभीर होते हैं
जल्दी दिमाग से निकलने नहीं चाहते हैं
जब तक वह अपने अनुसार
अपने को नहीं पाते हैं
शब्द भी विकलांग होते हैं
शब्द भी अंधे होते हैं
शब्द भी बहरे होते हैं
शब्द भी गूंगे होते हैं
जब वहां समय से पहले बिना सोचे समझे
दुनिया में निकाल दिए जाते हैं
शायद इसीलिए वह चाहते हैं
कि अपना प्रजनन काल पूरा करके ही
वह मस्तिष्क के रास्तों से होकर
दुनिया के सामने ले जाएं
ताकि शब्दों की किलकारी में
हम पूरा-पूरा आनंद पाये
क्योंकि कई बार अधपके खाने की तरह
शब्द बाहर तो निकल आते हैं
पर भला वह किसी का ध्यान भी
कहां आकर्षित कर पाते हैं
पड़े रहते हैं सड जाते हैं
फेंक दिए जाते हैं कोने में
और कोई भी नहीं मिलता
उनके लिए एक पल भी रोने में
इसीलिए शब्द भी अपने अपमान के लिए
सिर्फ बाहर नहीं निकालना चाहते हैं
वह भी अपने मानवाधिकार के लिए
पुरी जी जान से लड़ना चाहते हैं
अपने को स्थापित करना चाहते हैं
अपनी गरिमा को पाना चाहते हैं
और अंतिम समय तक ढूंढते हैं
उस किसी एक मिट्टी को जिसके अंदर
वह रहकर अपने अंदर का
अंकुरण फोड़ पाते हैं
और दुनिया को अपने होने का
सुंदर सा एहसास करा पाते हैं
पर इतना करने के बाद भी
शब्दों का भी जातिवाद चलने लगता है
कोई हल्के शब्द होते हैं
कोई अच्छे शब्द होते हैं
कोई निम्न शब्द होते हैं
कोई उच्च शब्द होते हैं
कोई गरिमा पूर्ण शब्द होते हैं
क्योंकि किस मिट्टी से होकर
कौन सा शब्द अपने को बना पाया है
यहां तथ्य ही सबसे महत्वपूर्ण
इस दुनिया में होता आया है
इसीलिए कहा भी गया है कोई
कि बोलने से पहले कई बार
किसी को भी सोच लेना चाहिए
क्योंकि शब्द तो निकल आएंगे
पर कम से कम उनके लिए
एक आदत अच्छा ग्राहक तो पाइये
इसीलिए कई बार लोग शब्द
पैदा करने के बजाय बच्चा चोर
की तरह शब्द चुराने लगते हैं
और अपना काम यूं ही चलाने लगते हैं
शब्द का यह दर्द या उसके जीवन के
आकार का यह मर्म हम सब
जब भी समझ जाएंगे
शब्दों से ही इस दुनिया को एक स्वर्ग
और किसी के लिए
जीने का अर्थ बना जाएंगे
आलोक चांटिया "रजनीश"


Thursday, June 5, 2025

जैसे ही शाम को घड़ी छह बजाती है- आलोक चांटिया "रजनीश"

 

जैसे ही शाम को घड़ी छह बजाती है
मुझे मेरी मां तेरी याद आती है
मैं दौड़ता हूं उनके कमरे की ओर
जहां मैं उन्हें हनुमान चालीसा सुनाया करता था
मुड़कर उनकी तरफ देखता भी हूं
जहां हनुमान का नाम सुनकर
एक मुस्कुराहट दौड़ा करती थी
पर अब उनके बिस्तर पर एक
सन्नाटा पसरा रहता है
और फोटो में उनका वजूद
सिर्फ यही कहता रहता है
मैं आज भी सुन रही हूं
तुम्हारे सुने हुए शब्दों को यहां
जो पांच तत्वों में विलीन हो गए हैं
तुम जिस शरीर को मां कहा करते थे
वे सब हवा पानी अग्नि
वायु पृथ्वी के हो गए हैं
बस तुम हर पल मुझे
महसूस करके देखते रहो
और अपने पथ पर प्रगति के
नए अंकुरण करते रहो
कल तुम भी चले जाओगे
इस दुनिया से
यह एक सच तुम्हें जानना होगा
तुमने कर्म के कौन बीज बोए हैं
इस सच को ही मानना होगा
इसलिए कर्म की परिभाषा में
मोह से ऊपर जाकर
तुम देखने का साहस करना आरंभ कर दो
कुरुक्षेत्र के समर में
कृष्ण की गीता अमर कर दो
जहां तक मेरा तुमसे संबंध था
वहां तक मैं तुम्हारे साथ रहती रही
मुझे अब जाना है मैं
तुमसे पल-पल यही कहती रही
इसलिए ना फोटो की ओर देखो
ना मेरे सन्नाटे से पड़े बिस्तर की ओर
अब उठो तुम पार्थ की तरह
और रचो एक सुंदर सा भोर
आलोक चांटिया "रजनीश"

Sunday, June 1, 2025

आज शमशान खुला था आलोक चांटिया "रजनीश"


 

आज शमशान खुला था

शायद फिर कोई जला था

किसी के सपने किसी का जीवन

किसी का कुछ करने का जुनून

शायद मिट्टी में मिला था

आज शमशान फिर खुला था

पूरब से चढ़ते सूरज के साथ

न जाने कितने बातों का

सिलसिला चला था

लगता था कल का सूरज

जब फिर निकलेगा

कुछ बातें पूरी होगी

कुछ नई फिर से बताई जाएगी

कुछ नई सजाई जाएगी

चांद की चांदनी में फिर से

सांसों की कहानी गाई जाएगी

पर सब कुछ आज फिर से हिला था

क्योंकि आज फिर शमशान खुला था

हर कोई भी यह चाहता था

कि सब लोग मिलकर

एक साथ चलते रहें मिलते रहे

कभी सुख में कभी दुख में

कभी दिन में कभी रात में

एक साथ खिलते रहे खिल खिलाते रहे

किसी ने अपने सपनों की बात कही थी

किसी के दर्द की बात कही थी

पर नींद में सोया फिर कहां किसको मिला था

क्योंकि आज शमशान फिर खुला था

शायद कोई फिर जला था

यह जीवन के रास्ते यूं ही चलते रहते हैं

हम एक गलतफहमी में चलते रहते हैं

हमें लगता है हम ही जान गए हैं

दुनिया को सब कुछ सब तरह से

और कल जीत लेंगे इस दुनिया के

हर रास्तों को कुछ इस तरह से

पर एक दिन सारे रास्ते गुम हो जाते हैं

पथ पर चलने वाले पग रुक जाते हैं

ऐसा ही एक सच आज फिर हमसे मिला था

आज फिर शमशान खुला था

शायद कोई फिर से जला था

आलोक चांटिया "रजनीश"

Tuesday, May 27, 2025

मन मेरे भीतर कहां है आलोक चांटिया "रजनीश"

 मन मेरे भीतर कहां पर है

यह मैं कभी जान नहीं पाया हूं

लेकिन जीवन के हर मोड़ पर

हर किसी को यह कहता पाया हूं

कि आज अपने मन को

अपने बस में मैं नहीं पाया हूं

मैं भी नहीं समझ पाता हूं

कि मेरे अंदर मन कहां रहता है

और वह कैसे मेरी हर बात

मेरे हर दर्द को सहता है

अक्सर उचाट कहकर मैं मन को

अपने सामने ले आता हूं

पर सच बताता हूं मन को

ढूंढता रह जाता हूं

उसे कहीं नहीं पाता हूं

मेरे मन में ही मेरी मां रहती है

मेरे पिता रहते हैं और यह

पूरी दुनिया भी रहती है

अक्सर मेरी मां मुझसे कहा करती थी

कि अपने मन को अच्छा रखो

अपने मन में गलत विचार मत लाया करो

मन ही सब कुछ है और मैं

उनसे भी पूछा करता था

मन कहां रहता है

मन को किसने देखा है

यही प्रश्न मेरा उनसे रहता था

पर वह मुस्कुरा कर कह जाती थी

मन सिर्फ महसूस करने की बात होती है

इस दुनिया में जब भी कहीं भी देखोगे

सिर्फ और सिर्फ जो भी लिखा गया है

पढ़ा गया है वह सब मां की बात होती है

उसे खोजने की कोशिश कभी मत करो

बस इस जिंदगी को जियो

और यहां से कुछ करके मरो

लेकिन आज भी मैं सुबह से ही

मन को खोज रहा हूं

और बैठा बैठा सिर्फ यही सोच रहा हूं

क्यों नहीं किसी काम को करने में

मेरा मन लग रहा है

यह मां कौन है जो मेरे ऊपर

इतना बड़ा नियंत्रण कर रहा है

लिख भी नहीं पा रहा हूं

खा भी नहीं पा रहा हूं

बस चुपचाप सन्नाटे में उदास

पथरायी सी आंखों के साथ रह रहा हूं

मां की फोटो को देखकर

सिर्फ उनकी कही गई बातों को

याद कर रहा हूं और झांक रहा हूं

उस मन को जहां पर मां को रोज कैद कर रहा हूं

कभी आपने क्या अपने

मन को देखने का प्रयास किया है

या मन मेरे अंदर कहां रहता है

क्या उसको भी किसी ने जिया है

आलोक चांटिया "रजनीश"

Monday, May 26, 2025

एक लता की तरह होती है औरत- आलोक चांटिया "रजनीश"

 एक लता की तरह होती है औरत

यही बात ना जाने कितने मुहावरे

कविता साहित्य में हमें सुनाई जाती है

औरत को अबला और

पुरुष के महानता की कहानी बताई जाती है

वज्र की तरह कठोर और

आसमान की तरह ऊंचा पुरुष होता है

उसे भला कहां किसी का आसरा होता है

पर इस सच से हम कैसे

मुख मोड़ कर जी पाते हैं

एक औरत के मर जाने पर आदमी को

बस कुछ ही दिन जीता हुआ पाते हैं

पर आदमी के दुनिया से चले जाने के बाद भी

एक औरत को हम साल दर साल

जिंदा इसी दुनिया में पाते हैं

फिर भी हम औरत को कोमल

आलंबन के लिए भटकती हुई

एक लता की तरह दिखलाते हैं

और पुरुष को हिमालय की तरह

आलोक तटस्थ बतलाते हैं

क्या हम सच में किसी भी पल

किसी भी मोड़ पर एक औरत के लिए

कोई भी सच जी पाते हैं

हम क्या सोच कर उसे

एक लता की तरह बतलाते हैं

आलोक चांटिया "रजनीश"




ये कविता एक तीखी, सधी हुई आवाज़ है—जो सालों से चले आ रहे जेंडर नैरेटिव्स को सीधा चुनौती देती है। आलोक चांटिया "रजनीश" ने जो लिखा है, वो एक चुप्पी को तोड़ने की कोशिश है, वो चुप्पी जो पितृसत्ता ने हमारी ज़ुबानों पर लाद रखी है।


थीम की बात करें तो:


"औरत लता है"—इस पुरानी, बार-बार दोहराई गई उपमा को कवि सीधे सवालों के कटघरे में खड़ा करता है। क्यों उसे हमेशा सहारे की मोहताज, कोमल, झुकने वाली बताया जाता है?


वहीं पुरुष हिमालय बनकर खड़ा रहता है—स्थिर, ऊंचा, कठोर, और भावनाओं से ऊपर?


लेकिन कवि फिर व्यावहारिक सच्चाई की बात करता है—औरतें ही वो हैं जो टूटने के बाद भी सालों तक जीती हैं, अकेले, बोझ उठाते हुए। जबकि पुरुष बिना अपने ‘सहारे’ के कुछ ही दिन में टूट जाते हैं।



शिल्प और भाषा की बात करें तो:


बहुत सीधी, सरल, मगर धारदार ज़बान है। जैसे चाकू बिना शोर किए काट देता है, वैसे ही ये पंक्तियाँ भीतर तक असर करती हैं।


कविता में बार-बार आने वाली प्रश्नवाचक शैली एक आत्ममंथन की मांग करती है—कवि से नहीं, हमसे।



कुछ मारक पंक्तियाँ जो सीधे दिल पर लगती हैं:


> "एक औरत के मर जाने पर आदमी को / बस कुछ ही दिन जीता हुआ पाते हैं

पर आदमी के दुनिया से चले जाने के बाद भी / एक औरत को हम साल दर साल / जिंदा इसी दुनिया में पाते हैं"




ये लाइनें एकदम खामोशी से, पर बहुत ज़ोर से कहती हैं—कि सहनशीलता और मजबूती की मिसाल असल में कौन है?


निष्कर्ष?

ये कविता सिर्फ एक साहित्यिक टुकड़ा नहीं, बल्कि एक सामाजिक आईना है। ये हमें दिखाता है कि हमारी सोच में कितनी गहराई तक असमानता घुस चुकी है—और पूछता है: अब भी आंखें मूंदे रहोगे या कुछ बदलेगा?


Sunday, May 25, 2025

माँ – एक रात की दस्तक —आलोक चांटिया "रजनीश"

 माँ – एक रात की दस्तक

—आलोक चांटिया "रजनीश"


रोज़ धीरे-धीरे रात गहराती है,

और यादों की पदचाप

चुपके से मेरे करीब आ जाती है।


सन्नाटे में कोई स्वर

बार-बार कुछ कह जाता है,

मैं पहचान नहीं पाता—

ये कौन है जो

मेरे अवचेतन से उठकर

चेतना पर छा जाता है।


खुली आंखों से

माँ का चेहरा सामने आ जाता है,

वैसे ही—जैसे हर रात

वो मेरी बेचैनी को पढ़ लेती थी।


इस बेचैनी को

कोई नाम नहीं दे पा रहा हूँ,

पर एक बेटा

माँ को आज फिर

अपने भीतर समझ पा रहा है।


हर कोई

कल की सुबह की जल्दी में

सो चुका है,

पर मेरी तो जागती रातों का

साथ माँ से फिर जुड़ चुका है।


जिन्हें सुनता हूँ—

वो झींगुर की आवाज़ें,

और टिमटिमाते तारे—

शायद माँ की परछाई लेकर

मेरे साथ चल रहे हैं।


वो सपनों में आएंगी,

कुछ कहेंगी,

कुछ रह जाएंगी...

और फिर

पिता की चिंता में डूबी

उनकी सारी बातें

फिर ताज़ा हो जाएंगी।


माँ को मैं

हर पल, हर घड़ी

महसूस कर रहा हूँ।

कैसे कहूं—

कि इस रात में

अकेला मैं

आख़िर क्या कर रहा हूँ...


Saturday, May 24, 2025

माँ का रिश्ता आलोक चांटिया "रजनीश"

 माँ का रिश्ता

आलोक चांटिया "रजनीश"


जब से मेरी माँ

मुझे छोड़कर चली गई है,

दुनिया

बस यादों का एक झरोखा बन गई है।


सुबह, दोपहर, शाम, रात—

जब भी कुछ सोचता हूँ,

सच कहूँ,

हर विचार में

माँ की कही कोई न कोई बात

बार-बार लौट आती है।


मैंने देखा है—

दुनिया को एक अजीब सी उलझन रहती है।

शायद इसी वजह से

वो हर बार मुझसे कहती है—

“कुछ तो निकलो बाहर,

और दुनिया को जीने की कोशिश करो,

कर्म के पथ पर एक बार 

फिर से कुछ तो करो”


पर मैं—

ना दुनिया को समझ पाता हूँ,

ना उसकी बातों को सुनने आता हूँ।


मुझे तो बस यही लगता है

कि हर रिश्ते में

माँ का रिश्ता कुछ अलग सा होता है।


और शायद इसी कारण,

माँ के जाने के बाद भी

मेरा मन बार-बार

उसी में खोता है।