Saturday, February 4, 2012

dard mere mann ka

ऐसा नही है कि लोग मुस्कराना भूल गए है ,
बस जलते हुए घर को बुझाना भूल गए है ,
जिन्दगी कुछ इस तरह दौड़ती भाग रही है ,
गिरते हुए लोग को हम उठाना भूल गए है  ,
रात को भी दिन समझ काम से है झूझ रहे ,
आलोक के राग पर हम गुनगुना भूल गए है ,
चाहता है मन कही कोई हसी खरीद दे मुझे ,
आदमी के मतलब को समझाना भूल गए है ,...............शायद ऐसा ही गुजरता है हम सभी का दिन ..पता नही जीवन के पथ पर हम मनुष्य कहा आ गए , कि दो पल का चैन हम खुद खा गए ...आइये रात में सपने को बुलाये और मनुष्य बन जाये ..शुभ रात्रि अखिल भारतीय अधिकार संगठन

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