एक बार सिपाही का दर्द जी लो
— आलोक चांटिया "रजनीश"
सब कुछ जैसे सामान्य है, न कोई शोर, न तूफ़ान है,
ना लगता है कहीं युद्ध की कोई हलचल या अरमान है।
माँ भारती के दिल में जो उठते हैं बारूदों के स्वर,
वो हम तक पहुंचते ही नहीं, ढक गए हैं उत्सवों के पर।
कहीं कोई छुट्टी की योजना में खोया है,
कहीं कोई पाठ्यक्रमों में डूबा रोया है।
किसी को चिंता है कल खाने में क्या आएगा,
पैसे कहाँ उड़ेंगे, कौन-सा सपना सजाएगा।
इन्हीं में एक—हम जैसा ही—
सीमा पर खड़ा है, लेकिन बिल्कुल विपरीत दिशा में जीता है वही।
वर्दी लाल है लहू से, पसीने से भीगी भूमि,
अपने स्वप्नों को त्याग, तुम्हारे लिए वो रोज़ रचता है पुण्य।
वो चाहता है—देशवासी मुस्कुराते रहें,
वो अपनी जान देकर भी ये वादा निभाते रहें।
पर क्या कभी सोचते हो तुम एक पल भी,
जब घर में चैन की नींद में खोए होते हो सभी?
जब तुम्हारे सपनों की राहें होती हैं रंगीन,
वो अपने मन की नींद फेंक देता है कहीं।
लोमड़ी जैसी सजग बुद्धि लिए,
सीमा के पार की हर आहट से जीये।
जब तुम सोचते हो, नाश्ते में क्या खाया जाए,
तब वो अपने सीने पर गोलियाँ खा जाए।
क्यों मान लिया कि सब कुछ उसका धर्म है?
क्या सिर्फ उसी के हिस्से देशप्रेम का कर्म है?
क्या कभी सोचा—वो भी तो किसी माँ की गोद से आया है,
उसने भी तो बचपन में सपनों का संसार सजाया है।
वो भी चाहता है बच्चों की किलकारी,
माँ का आशीर्वाद, पत्नी की पायल की झंकार प्यारी।
पर इन सबको वह मन में दबा लेता है,
दिल पर पत्थर रख कर हर भावना को जला लेता है।
क्योंकि जब वह खून से धरती को सींचता है,
हर घर में तब सूरज-सी मुस्कान फूटता है।
जब तुम खुशियाँ मना रहे होते हो कहीं,
वो सीमा पर खड़ा होता है वहीं।
और तुम उसे कितनी आसानी से भूल जाते हो,
उसके होने की अहमियत से मुंह मोड़ जाते हो।
न तुम्हें व्रत रखने की ज़रूरत है,
न पूजा, न पाठ, न नियम की ज़रूरत है।
बस—उन वीरों के रास्ते पर सम्मान रखो,
जिनके बलिदान पर तुम अपना जीवन लिखो।
क्या कभी उन शहीदों के चेहरे की मुस्कान को
सर झुका कर देखा है तुमने बेज़ुबान को?
जिन्होंने लिखा है एक गरिमा पूर्ण इतिहास
और दिए प्राण इस भारत महान को