Monday, May 12, 2025

माँ बुद्ध क्यों नहीं? — आलोक चांटिया "रजनीश"

 माँ बुद्ध क्यों नहीं?

— आलोक चांटिया "रजनीश" 


एक वृद्ध देखा, एक रोगी, एक शव—

राजकुमार के भीतर जागा प्रश्न का प्रवाह।

राजमहल को त्याग दिया, ज्ञान की राह पकड़ी,

सिद्धार्थ हुए बुद्ध, सत्य की लौ में जकड़ी।


पर माँ तो रोज ही देखती है यह दृश्य,

बूढ़ा भी, बीमार भी, मृत्यु का रहस्य।

हर सुबह, हर रात, एक तपस्विनी-सी लगती,

बिना सवाल, बिना स्वार्थ, बिना किसी गिनती।


वह बताती है—

क्या है जीवन, क्या है माया, क्या है सही राह,

हर गलती पर रोक, हर मोड़ पर सलाह।

न कोई बोधिवृक्ष, न ध्यान की गुफा,

फिर भी माँ की आँखों में है परम दृष्टि छुपा।


तो फिर क्यों नहीं कहती दुनिया उसे बुद्ध?

जिसने बचपन से जीवन का पाठ पढ़ाया सुध-बुध।

जिसके आँचल में है पूर्णिमा का उजास,

जो देती है ज्ञान, प्रेम और विश्वास।


क्या बुद्ध बनने को त्याग चाहिए, या त्यागने वाला नाम?

क्यों नहीं माँ के त्याग को मिलता वही सम्मान?

Saturday, May 10, 2025

मदर्स डे पर मां को समर्पित मां की बात आलोक चांटिया "रजनीश"

 मदर्स डे पर मां को समर्पित


मां की बात


आलोक चांटिया "रजनीश" 


हर मां जानती है गहराई से,

बच्चा आता है लाचारी से।

ये दुनिया बस कहने की है,

यहां कोई किसी के लिए नहीं खड़ा कभी है।


भूख-प्यास सबको लगती है,

पर किसी की पीड़ा किसे खलती है?

इंसानियत किताबों में प्यारी,

असल में दुनिया है खुदगर्ज़ सारी।


कितने भूखे, कितने प्यासी,

पर आंखों पर सबके पट्टी है फांसी।

मां जानती है, ये सच भारी,

बच्चे की भूख भी है जिम्मेदारी।


वो रोटी नहीं मांगती बाहर,

छाती से बहा देती अमृत धार।

क्योंकि समझती है ये संसार,

खुद पर जो करे उपकार—

भगवान भी आता उसके द्वार।


इसलिए मां बन जाती है शक्ति,

पालन करती है हर भूख, हर भक्ति।

बच्चे को देती अपना प्यार,

अपने अंचल में संसार।


जब तक बच्चा ना हो सुरक्षित,

जीवन नहीं होता सुनिश्चित।

इसलिए मां गर्भ का कवच बनाए,

हर पीड़ा को हंस के अपनाए।


रातें जागे, नींदें छोड़े,

दर्द को भी प्यार से ओढ़े।

अंधेरे को समझाती है वो,

कि जीवन में अंधेरा होगा तो,

गर्भ की याद ही देगा संबल,

चल पड़ेगा बच्चा खुद संबल।


मां का यही पाठ सिखाता है,

खुद गिरकर फिर उठना सिखाता है।

पर क्या हम समझ पाते हैं?

उसकी पीड़ा में उतर पाते हैं?


कितनी रातें जागी होगी,

गंदगी में भी मुस्काई होगी।

बदले में मिला क्या उसे?

वृद्धाश्रम की एकांत धूप में बसे।


जिसने दिखाया जीवन का रंग,

हम भूल गए उसका हर संग।

आज जब दुनिया रंग बदलती है,

मां अकेली आंसू छलकती है।


मानव की दुनिया में मां रह जाती है,

सन्नाटों में खुद को गुम पाती है।

देती रही जो जीवन भर सबको,

आज बैठी है खाली मन लेकर खुद को।

Friday, May 9, 2025

क्षणभंगुरता का बोध"- आलोक चांटिया "रजनीश"

 "क्षणभंगुरता का बोध"


यह संसार माया है,

क्षणभंगुर हर छाया है,

जो जन्मा है, वो जाएगा,

यह ब्रह्म का ही साया है।


सूरज भी थकेगा एक दिन,

विलीन होगा प्रकाश में,

जैसे जीवन खो जाता है,

परम शांति के वास में।


हम देख न पाए सत्य को,

रूप-रंग में उलझे रहे,

जो नश्वर था, उसी को

अमर समझ भ्रम में बहते रहे।


प्रकृति ने जब डाली पुकार,

वह ब्रह्म की ही भाषा थी,

हम मौन रहे, व्यस्त रहे,

यह कैसी अज्ञानता थी?


समाप्ति के बाद ही क्यों

जागे हम चेतना में,

जब अंत निकट आता है,

तब ही ध्यान आता है आत्मा में।


पर आत्मा तो अमर है,

वह साक्षी है सब वियोग की,

शरीर जाता है, स्मृति जाती है,

पर वह नहीं जाती योग की।


अब भी समय है,

ठहरो, देखो, भीतर झाँको,

जहाँ न अंत है, न आरंभ—

उस आत्म तत्त्व को पहचानो।

एक बार सिपाही का दर्द जी लो — आलोक चांटिया "रजनीश"

 

एक बार सिपाही का दर्द जी लो

— आलोक चांटिया "रजनीश" 


सब कुछ जैसे सामान्य है, न कोई शोर, न तूफ़ान है,

ना लगता है कहीं युद्ध की कोई हलचल या अरमान है।

माँ भारती के दिल में जो उठते हैं बारूदों के स्वर,

वो हम तक पहुंचते ही नहीं, ढक गए हैं उत्सवों के पर।


कहीं कोई छुट्टी की योजना में खोया है,

कहीं कोई पाठ्यक्रमों में डूबा रोया है।

किसी को चिंता है कल खाने में क्या आएगा,

पैसे कहाँ उड़ेंगे, कौन-सा सपना सजाएगा।


इन्हीं में एक—हम जैसा ही—

सीमा पर खड़ा है, लेकिन बिल्कुल विपरीत दिशा में जीता है वही।

वर्दी लाल है लहू से, पसीने से भीगी भूमि,

अपने स्वप्नों को त्याग, तुम्हारे लिए वो रोज़ रचता है पुण्य।


वो चाहता है—देशवासी मुस्कुराते रहें,

वो अपनी जान देकर भी ये वादा निभाते रहें।

पर क्या कभी सोचते हो तुम एक पल भी,

जब घर में चैन की नींद में खोए होते हो सभी?


जब तुम्हारे सपनों की राहें होती हैं रंगीन,

वो अपने मन की नींद फेंक देता है कहीं।

लोमड़ी जैसी सजग बुद्धि लिए,

सीमा के पार की हर आहट से जीये।


जब तुम सोचते हो, नाश्ते में क्या खाया जाए,

तब वो अपने सीने पर गोलियाँ खा जाए।

क्यों मान लिया कि सब कुछ उसका धर्म है?

क्या सिर्फ उसी के हिस्से देशप्रेम का कर्म है?


क्या कभी सोचा—वो भी तो किसी माँ की गोद से आया है,

उसने भी तो बचपन में सपनों का संसार सजाया है।

वो भी चाहता है बच्चों की किलकारी,

माँ का आशीर्वाद, पत्नी की पायल की झंकार प्यारी।


पर इन सबको वह मन में दबा लेता है,

दिल पर पत्थर रख कर हर भावना को जला लेता है।

क्योंकि जब वह खून से धरती को सींचता है,

हर घर में तब सूरज-सी मुस्कान फूटता है।


जब तुम खुशियाँ मना रहे होते हो कहीं,

वो सीमा पर खड़ा होता है वहीं।

और तुम उसे कितनी आसानी से भूल जाते हो,

उसके होने की अहमियत से मुंह मोड़ जाते हो।


न तुम्हें व्रत रखने की ज़रूरत है,

न पूजा, न पाठ, न नियम की ज़रूरत है।

बस—उन वीरों के रास्ते पर सम्मान रखो,

जिनके बलिदान पर तुम अपना जीवन लिखो।


क्या कभी उन शहीदों के चेहरे की मुस्कान को

सर झुका कर देखा है तुमने बेज़ुबान को?

जिन्होंने लिखा है एक गरिमा पूर्ण  इतिहास 

और दिए प्राण इस भारत महान को

माँ का सच-

 माँ का सच

काव्यात्मक अनुवाद


मन है बोझिल, व्यथित, उदास,

जैसे माँ नहीं रही मेरे पास।

फिर सोचूं—क्यों रहती वो यहाँ,

जब हर कोई कहता है दुनिया को अलविदा?


पर दिल क्यों अब भी उसे बुलाए,

उसकी ममता क्यों भूला न जाए?

नज़रें टिकती हैं उस पौधे पर,

जो उगा है मिट्टी के भीतर।


एक बीज था, चुपचाप सोया,

धरती में गहरा दफ़न जो हुआ।

तभी तो पत्ते, फूल खिलाए,

अपनी छटा से जग को भाए।


पर सोचूं—इसकी माँ कहाँ है?

जिससे जीवन की पहली शपथ पाई है।

जिस कोख से जन्म लिया इसने,

वो तो मिट्टी में सो गई चुपचाप सने।


धरती बन गई उसकी चादर,

माँ की ममता हुई अमर।

बीज से पौधा जो बन पाया,

माँ के जाने से ही मुस्काया।


वो माँ कभी देख न पाएगा,

क्योंकि उसी की छाती पर जी पाएगा।

फिर भी कहता है—मैं हूँ पेड़,

छिपा लेता है सच का भेद।


पर कैसे कोई इसको झुठलाए,

कि माँ के बिना जीवन कैसे आए?

माँ के मिटने से जीवन पाता है रंग,

उसी की कुर्बानी से है यह संग।


और मेरा दिल भी चैन में है,

कि माँ की मिट्टी ही जीवन का सेहरा है।

वो खो गई, पर हमें मिला जहाँ,

उस त्याग में बसी है उसकी पहचान।


पर कौन समझे इस दिल की बात,

कब, कहाँ, और किसके साथ?